SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 855
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमि में रह कर छींक आदि ऐसा शब्द करना जिस से दूसरा शब्द का आशय समझ कर उस ' कार्य को कर दे। इस में शब्द की प्रधानता है। ४-रूपानुपात-मर्यादित भूमि से बाहर कोई कार्य उपस्थित होने पर इस तरह की शारीरिक चेष्टा करना कि जिस से दूसरा व्यक्ति आशय समझ कर उस काम को कर दे। ५-बाह्यपुद्गलप्रक्षेप-मर्यादित भूमि से बाहर कोई प्रयोजन होने पर दूसरे को अपना आशय समझाने के लिए ढेला, कंकर आदि पुद्गलों का प्रक्षेप करना। ३-पौषधोपवासव्रत-धर्म को पुष्ट करने वाला नियमविशेष धारण कर के उपवाससहित पौषधशाला में रहना पौषधोपवासव्रत कहलाता है। वह चार प्रकार का होता है। उन चारों के भी पुनः देश और सर्व ऐसे दो-दो भेद होते हैं। उन सब का नामपूर्वक विवरण निम्नोक्त है १-आहारपौषध-एकासन, आयंबिल करना देश-आहारत्यागपौषध है, तथा एक दिन-रात के लिए अशन, पान, खादिम तथा स्वादिम इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग करना सर्वआहारत्यागपौषध कहलाता है। २-शरीरपौषध-उद्वर्तन, अभ्यंगन, स्नान, अनुलेपन आदि शरीरसम्बन्धी अलंकारों के साधनों में से कुछ त्यागना और कुछ न त्यागना देश-शरीरपौषध कहलाता है तथा दिनरात के लिए शरीर-सम्बन्धी अलंकार के सभी साधनों का सर्वथा त्याग करना सर्वशरीरपौषध है। ३-ब्रह्मचर्यपौषध-केवल दिन या रात्रि में मैथुन का त्याग करना देश-ब्रह्मचर्यपौषध और दिन-रात के लिए सर्वथा मैथुन का त्याग कर धर्म का पोषण करना सर्व-ब्रह्मचर्यपौषध कहलाता है। ४-अव्यापारपौषध-आजीविका के लिए किए जाने वाले कार्यों में से कुछ का त्याग करना देश-अव्यापारपौषध और आजीविका के सभी कार्यों का दिन-रात के लिए त्याग करना सर्व-अव्यापारपौषध कहलाता है। इन चारों प्रकार के पौषधों को देश या सर्व से ग्रहण करना ही पौषधोपवास कहलाता है। जो पौषधोपवास देश से किया जाता है वह सामायिक (सावद्यत्याग) सहित भी किया जा सकता है और सामायिक के बिना भी। जैसे-केवल आयंबिल आदि करना, शरीरसम्बन्धी अलंकार का आंशिक त्याग करना, ब्रह्मचर्य का कुछ नियम लेना या किसी व्यापार का त्याग करना परन्तु पौषध की वृत्ति धारण न करना, इस प्रकार के पौषध (त्याग) दशवें व्रत के . अन्तर्गत माने गए हैं प्रत्युत ग्यारहवां व्रत तो चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा त्याग 846 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy