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________________ सामायिकपूर्ण दिन-रात के लिए करने से होता है, उसे ही प्रतिपूर्ण पौषध कहते हैं। प्रतिपूर्ण पौषध का अर्थ संक्षेप में-आठ प्रहर के लिए चारों आहार, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, . पुष्पमाला, सुगन्धित चूर्ण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को छोड़ कर धर्मस्थान में रहना और धर्मध्यान में लीन हो कर शुभ भावों के साथ उक्त काल को व्यतीत करना-ऐसे किया जा सकता है - प्रतिपूर्ण पौषधव्रत के पालक की स्थिति साधुजीवन जैसी होती है। इसीलिए उस में कुरता, कमीज, कोट, पतलून आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते। पलंग आदि पर सोया नहीं जाता और स्नान भी नहीं किया जाता, प्रत्युत कमीज आदि सब उतार कर शुद्ध धोती आदि पहन कर मुख पर मुखवस्त्रिका लगा कर तथा सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग रह कर साधुजीवन की भान्ति एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्मचिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस व्रत का प्रधान उद्देश्य रहता है। इस के अतिरिक्त पौषधोपवासव्रत के संरक्षण के लिए निम्नोक्त 5 कार्यों को अवश्य त्याग देना चाहिए १-पौषध के समय काम में लिए जाने वाले पाट, बिछौना, आसन आदि की प्रतिलेखना (निरीक्षण) न करना। अथवा मन लगा कर प्रतिलेखना की विधि के अनुसार प्रतिलेखना नहीं करना तथा अप्रतिलेखित पाट का काम में लाना। - २-पौषध के समय काम में लिए जाने वाले पाट, आसन आदि का परिमार्जन न करना। अथवा विधि से रहित परिमार्जन करना। ... प्रतिलेखन और परिमार्जन में इतना ही अंन्तर होता है कि प्रतिलेखन तो दृष्टि द्वारा किया जाता है, जब कि परिमार्जन रजोहरणी-पूंजनी या रजोहरण द्वारा हुआ करता है, तथा प्रतिलेखन केवल प्रकाश में ही होता है, जबकि परिमार्जन रात्रि को भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि कल्पना करो दिन में पाट का निरीक्षण हो रहा है। किसी जीव जन्तु के वहां दृष्टिगोचर होने पर रजोहरणी आदि से उसे यतनापूर्वक दूर कर देना इस प्रकार प्रकाश में प्रतिलेखन तथा परिमार्जन होता है परन्तु रात्रि में अंधकार के कारण कुछ दीखता नहीं तो यतनापूर्वक रजोहरणादि से स्थान को यतनापूर्वक परिमार्जन करना अर्थात् वहां से जीवादि को अलग करना। यही परिमार्जन और प्रतिलेखन में भिन्नता है। ३-शरीरचिन्ता से निवृत्त होने के लिए त्यागे जाने वाले पदार्थों को त्यागने के स्थान की प्रतिलेखना न करना। अथवा उस की भलीभान्ति प्रतिलेखना न करना। __४-मल, मूत्रादि गिराने की भूमि का परिमार्जन न करना, यदि किया भी है तो भली प्रकार से नहीं किया गया। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [847
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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