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________________ असा है। में काल की मर्यादा नियत करके एक दिन-रात के लिए आस्रवसेवन का त्याग किया जाए, वह भी देशावकाशिक व्रत कहलाता है, जिस को आज का जैन संसार दया या छःकाया के नाम से अभिहित करता है। दया करने के लिए आस्रवसेवन का एक दिन-रात के लिए त्याग कर के विरतिपूर्वक धर्मस्थान में रहा जाता है। ऐसी विरति त्यागपूर्ण जीवन बिताने का अभ्यासरूप है। दया उपवास कर के भी की जा सकती है। यदि उपवास करने की शक्ति न हो तो आयंबिल आदि करके भी की जा सकती है। यदि कारणवश ऐसा कोई भी तप न किया जा सके तो एक या एक से अधिक भोजन करके भी की जा सकती है। सारांश यह है कि दया में जितना तप, त्याग किया जा सके उतना ही अच्छा है। दया में किए जाने वाले प्रत्याख्यान जितने करण और योग से करना चाहें, कर सकते हैं। कोई दो करण और तीन योग से 5 आस्रवसेवन का त्याग करते हैं। उन की प्रतिज्ञा का रूप होगा कि मैं मन, वचन और काया से 5 आस्रवों का सेवन न करूंगा, न दूसरे से कराऊंगा। यह प्रतिज्ञा करने वाला व्यक्ति सावध कार्य को स्वयं न कर सकेगा न दूसरों से करा सकेगा, परन्तु इस तरह की प्रतिज्ञा करने वाले व्यक्ति के लिए जो वस्तु बनी है, उस का उपयोग करने से उस की वह प्रतिज्ञा नहीं टूटने पाती। . दया को एक करण तीन योग से भी धारण किया जाता है। एक करण तीन योग से ग्रहण करने वाला जो व्यक्ति आस्रव का त्याग करता है वह स्वयं अस्रव नहीं करेगा परन्तु दूसरों से कराता है, तथापि उस का त्याग भंग नहीं होता क्योंकि उसने दूसरे के द्वारा आरम्भ कराने का त्याग नहीं किया। इसी तरह इस व्रत को स्वीकार करने के लिए जो प्रत्याख्यान किया जाता है वह एक करण और एक योग से भी हो सकता है। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति केवल शरीर से ही आरम्भ के कार्य नहीं कर सकता। मन, वचन से करने-कराने और अनुमोदने का उस ने त्याग नहीं किया, परन्तु यह त्याग बहुत अल्प है। इस में आस्रवों का बहुत कम अंश त्यागा जाता है। (2) थोड़े समय के लिए आस्रवों के सेवन का त्याग भी-देशावकाशिक व्रतकहलाता है, आजकल इसे सम्वर कहते हैं। सम्वर करने वाला व्यक्ति जितने थोड़े समय के लिए उसे करना चाहे कर सकता है। जैसे सामायिक के लिए कम से कम 48 मिनट निश्चित होते हैं, वैसी बात सम्वर के लिए नहीं है। अर्थात् इच्छानुसार समय के लिए आस्रव से निवृत्त होने के लिए सम्वर किया जा सकता है। आज कल देशावकाशिक व्रत चौविहार उपवास न कर के कई लोग प्रासुक पानी का उपयोग करते हैं और इस प्रकार से किए गए देशावकाशिक 844 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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