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________________ धोरुकिनिका-देशविशेष में उत्पन्न स्त्री, लासिका-लासकदेशोत्पन्न स्त्री, लकुशिकालकुशदेशोत्पन्न स्त्री, दमिला-द्रविड़देशोत्पन्न स्त्री, सिंहलि-सिंहल- (लंका) देशोत्पन्न स्त्री, आरबी-अरबदेशोत्पन्न स्त्री, पुलिन्दी-पुलिन्ददेशोत्पन्न स्त्री, पक्कणी-पक्कणदेशोत्पन्न स्त्री, बहली-बहलदेशोत्पन्न स्त्री, मुरुण्डी-मुरुण्डदेशोत्पन्न स्त्री, शबरी-शबरदेशोत्पन्न स्त्री, पारसीफारस-(ईरानदेशोत्पन्न स्त्री), इत्यादि नाना देशोत्पन्न तथा विदेशों के परिमण्डनों (अलंकारों) से युक्त, इंगित (नयनादि की चेष्टाविशेष), चिन्तित (मन से विचारित) और प्रार्थितअभिलषित का विज्ञान रखने वाली, अपने-अपने देश का नेपथ्य (परिधान आदि की रचना और वेष पहनावा) धारण करने वाली निपुण स्त्रियों के मध्य में भी अत्यन्त कौशल्य को धारण करने वाली और विनम्र स्त्रियों से युक्त, चेटिकासमूह-दासीसमूह, वर्षधर-नपुंसकविशेष, कंचुकी-अन्त:पुर का प्रतिहारी, महत्तरक-अन्त:पुर के कार्यों का चिन्तन करने वाला / इन सब के समूह से परिक्षिप्त-घिरा हुआ, हाथों हाथ ग्रहण किया जाता हुआ, एक गोद से दूसरी गोद का परिभोग करता हुआ, बालोचित गीतविशेषों द्वारा जिस का गान किया जा रहा है, जिस को चलाया जा रहा है, क्रीड़ा आदि के द्वारा जिस से लाड़ किया जा रहा है, एवं जो रमणीय मणियों से खचित फर्श पर चंक्रमण करता है अर्थात् बार-बार इधर-उधर जिसे घुमाया जा रहा है ऐसा वह बालक। प्रस्तुत सूत्र में उज्झितक कुमार की जन्म तथा बाल्यकालीन जीवनचर्या का वर्णन किया गया है अब अग्रिम सूत्र में उस की आगे की जीवनचर्या का वर्णन किया जाता है मूल-तते णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइगणिमं च धरिमंच मेजं च परिच्छेनं च चउविहं भण्डगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेणं उवागते। तते णं से विजयमित्ते तत्थ लवणसमुद्दे पोतविवत्तिए णिव्वुडभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मणा संजुत्ते। तते णं से विजयमित्तं सत्थवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-इब्भ-सेट्टि-सत्थवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तियं निव्वुडुभंडसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेति ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभंडसारं च गहाय 'एगंतं अवक्कमंति। तते णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्तं सत्थवाहं लवणसमुद्दे पोत्तविवत्तियं निव्वुड्डभंडसारं कालधम्मुणा 1. निमग्न-भाण्डसारः, निमग्नानि जलान्तर्गतानि भाण्डानि पण्यानि तान्येव साराणि-धनानि यस्य स तथेति भावः। 2. एकान्तम् अलक्षितस्थानम् अपक्रामन्ति वाणिजग्रामतः पलायित्वा प्रयान्तीत्यर्थः, अर्थात् ईश्वर और तलवर आदि लोग धरोहरादि को लेकर वाणिजग्राम से बाहर ऐसे स्थान पर चले गए जिस का दूसरों को पता न चल सके। 294 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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