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________________ "-विदिण्ण-छत्त-चामरवालवियणिया-वितीर्णछत्रचामरबालव्यजनिका-" अर्थात् राजा को ओर से दिया गया छत्र, चामर-चंवर और बालव्यजनिका-चंवरी या छोटा पंखा जिस को ऐसी, अर्थात् कामध्वजा गणिका की कलाओं से प्रसन्न हो कर राजा ने उसे पारितोषिकं के रूप में ये सन्मान सूचक छत्र, चामरादि दिए हुए थे। इन विशेषणों से कामध्वजा के विषय में इतना ही कह देना पर्याप्त है कि वह कोई साधारण बाज़ार में बैठने वाली वेश्या नहीं थी अपितु एक प्रसिद्ध कलाकार तथा राजमान्य असाधारण गणिका थी। "-कण्णीरहप्पयाया-कीरथप्रयाता-" अर्थात् वह गणिका कर्णीरथ के द्वारा आती जाती थी, अर्थात् उस के गमनागमन के लिए कर्णीरथ प्रधानरथ नियुक्त था। कीरथ यह उस समय एक प्रकार का प्रधान रथ माना जाता था, जो कि प्रायः समृद्धि-शाली व्यक्तियों के पास होता था। "-आहेवच्चं जाव विहरति" इस पाठ में उल्लिखित –"जाव-यावत्" पद से सूत्रकार को क्या विवक्षित है उस का सविवरण निर्देश वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है "-आहेवच्चं-" त्ति आधिपत्यम् अधिपतिकर्म, इह यावत्करणादिदं दृश्यम् "पोरेवच्चं-"पुरोवर्तित्वमग्रेसरत्वमित्यर्थः। "-भट्टित्तं-भर्तृत्वं पोषकत्वम्""-सामित्तं-" स्वस्वामि-सम्बन्धमात्रम्," -महत्तरगत्तं-" महत्तरगत्वं शेषवेश्या-जनापेक्षा महत्तमताम् "आणाईसरसेणावच्चं-" आज्ञेश्वरः आज्ञा-प्रधानो यः सेनापतिः, सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसेनापत्यम्, "-कारेमाणा-"कारयन्ती परैः "-पालेमाणा-" पालयन्ती स्वयमिति। अर्थात् वह गणिका हज़ारों गणिकाओं का आधिपत्य, और पुरोवर्तित्व करती थी। तात्पर्य यह है कि उन सब में वह प्रधान तथा अग्रेसर थी। उन की पोषिका-पालन पोषण करने वाली थी। उन के साथ उस का सेविका और स्वामिनी जैसा सम्बन्ध था। सारांश यह है कि सहस्रों वेश्याएं उसकी आज्ञा में रहती थीं और वह उनकी पूरी पूरी देख रेख रखती थी। संक्षेप में कहें तो कामध्वजा वाणिजग्राम नगर की सर्व-प्रधान राजमान्य और सुप्रसिद्ध कलाकार वेश्या थी। - इस प्रकार से प्रस्तुत सूत्र में कामध्वजा गणिका के सांसारिक वैभव का वर्णन प्रस्तावित किया गया है। इस में सन्देह नहीं कि स्त्री-जाति की प्रवृत्ति प्रायः संसाराभिमुखी होती है, वह सांसारिक विषय-वासनाओं की पूर्ति के लिए विविध प्रकार के साधनों को एकत्रित करने में व्यस्त रहती है। परन्तु इस में भी शंका नहीं की जा सकती कि जब उस की यह प्रवृत्ति कभी सदाचाराभिगामिनी बन जाती है और उस की हृदय-स्थली पर धार्मिक भावनाओं का स्रोत बहने लग जाता है तो वही स्त्री-जाति संसार के सामने एक ऐसा पुनीत आदर्श उपस्थित करती है, कि जिस में संसार को एक नए ही स्वरूप में अपने आप को अवलोकन करने का पुनीत प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [241
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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