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________________ -उक्कोसेणं णेरइयत्ताए-यहां का बिन्दु-बावीससागरोवमद्विइएसु नेरइएसु-इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पदार्थ में दिया जा चुका है। ___-सेसे जहा देवदत्ताए-इन पदों से सूत्रकार ने अञ्जूश्री के जीवनवृत्तान्त को देवदत्ता के तुल्य संसूचित किया है, अर्थात् जिस प्रकार दुःखविपाक के नवम अध्ययन में देवदत्ता के पालन, पोषण, शारीरिक सौन्दर्य तथा कुब्जादि दासियों के साथ विशाल भवन के ऊपर झरोखे में सोने की गेंद से खेलने का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार अञ्जूश्री के सम्बन्ध में भावना कर लेनी चाहिए। ___-आसवा-यहां का बिन्दु-हणियाए णिजायमाणे-इस पाठ का बोधक है। तथाजहेव वेसमणदत्ते तहेव अंजू-इन पदों से सूत्रकार ने नवम अध्ययन में वर्णित पदार्थ की ओर संकेत किया है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार नवमाध्याय में वर्णित रोहीतकनरेश वैश्रमणदत्त गाथापति के घर के निकट जाते हुए सोने की गेंद से खेलती हुई देवदत्ता को देखते हैं और उसके . रूपादि से विस्मित एवं मोहित होते हैं, वैसे ही वर्धमाननरेश विजय धनदेव के घर के निकट जाते हुए अञ्जूश्री को देख कर उस के रूपादि से विस्मित एवं मोहित हो जाते हैं। -णवरं अप्पणो अदाए वरेति-यहां प्रयुक्त णवरं-इस अव्यय पद का अर्थ हैकेवल अर्थात् केवल इतना अन्तर है। तात्पर्य यह है कि वैश्रमणदत्त और विजयमित्र में इतना अन्तर है कि वैश्रमणदत्त नरेश ने देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए मांगा था जब कि : विजय नरेश ने अंजूश्री को अपने लिए अर्थात् अपनी रानी बनाने के लिए याचना की थी। ___-जाव अंजूए-यहां पठित जाव-यावत् पद से श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के १४वें अध्ययन में वर्णित तेतलिपुत्र ने जिस तरह पोटिल्ला को अपने लिए मांगा था-आदि कथासंदर्भ के संसूचित पाठ को सूचित किया गया है, जिसे श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में देखा जा सकता है। -उप्पिं जाव विहरति-यहां पठित जाव-यावत् पद से अभिमत-पासायवरगए फुट्टमाणेहि-से लेकर-पच्चणुभवमाणे-यहां तक के पद तृतीय अध्याय में लिखे जा चुके हैं / अन्तर मात्र इतना है कि वहां अभग्नसेन का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में विजय नरेश का। अब सूत्रकार अंजूश्री के आगामी जीवनवृत्तान्त का वर्णन करते हैं मूल-तते णं तीसे अंजूए देवीए अन्नया कयाइ जोणिसूले पाउब्भूते यावि होत्था।तते णं से विजए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासीगच्छह णं देवाणुप्पिया ! वद्धमाणपुरे नगरे सिंघा० जाव एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अंजूए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते जो णं इच्छति वेजो वा 6. जाव उग्घोसेंति। तते णं ते बहवे वेजा वा 6 इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा 762 ] श्री विपाक सूत्रम् / दशम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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