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________________ नाड़ियों में से पीब और रुधिर बहा करता था।इन 16 नाड़ियों में से दो-दो नाडियां कर्ण विवरों-कर्ण छिद्रों में, इसी प्रकार दो-दो नेत्र विवरों में, दो-दो नासिका-विवरों और दो-दो धमनियों से बार-बार पूय तथा रक्त का स्त्राव किया करती थी अर्थात् इन से पूय और रक्त बह रहा था। और गर्भ में ही उस बालक के शरीर में अग्निक-भस्मक नाम की व्याधि उत्पन्न हो गई थी जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता था, अर्थात् पच जाता था तथा तत्काल ही वह पूय-पीब और शोणित-रक्त के रूप में परिणत हो जाता था। तदनन्तर वह बालक उस पूय और शोणित को भी खारे जाता था। टीका-अत्युग्र पापकर्मों का आचरण का क्या परिणाम होता है यह जानने के इच्छुक के लिए मृगापुत्र का यह एक मात्र उदाहरण ही काफी है। गर्भावास में ही अन्दर तथा बाहर . 1. हृदयकोष्ठ के भीतर की नाड़ी का नाम धमनी है। 2. गर्भगत जीव माता के खाए हुए आहार से पुष्टि को प्राप्त होता है, यह कथन सर्व-सम्मत है परन्तु मृगापुत्र के जीव की दुष्कर्मवशात् इस से कुछ विलक्षण ही स्थिति है। मृगापुत्र का जीव माता द्वारा किए गए आहार को जहां रस के रूप में ग्रहण करता है वहां वह जठराग्नि के द्वारा रस के पचाए जाने और उस के पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाने पर उस पूय और रुधिर को भी दोबारा आहार के रूप में ग्रहण करता है। जो कि स्थूल दृष्ट्या प्रकृति-विरुद्ध ठहरता है। . गर्भ के बाहर आने पर मृगापुत्र के द्वारा गृहीत आहार का पूय और रुधिर के रूप में परिणत हो जाना, उस परिणत पदार्थ का वमन हो जाना, तदनन्तर उस वान्त पदार्थ का मृगापुत्र के द्वारा ग्रहण कर लेना तो असंगत नहीं ठहरता। क्योंकि ये सब व्यवहार सिद्ध हैं ही। परन्तु गर्भस्थ जीव का दोबारा आहार ग्रहण करना कैसे संगत ठहरता है ? यह अवश्य विचारणीय है। विद्वानों के साथ ऊहापोह करने से मैं जो समाधान कर पाया हूं, वह पाठकों के सामने रख देता हूं। उस में कहाँ तक औचित्य है ? यह वे स्वयं विचार करें। सर्व-प्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि कर्मों की विलक्षण स्थिति को सम्मुख रखते हुए मृगापुत्र के जीव का जो चित्रण शास्त्रकारों ने किया है वह कोई आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि कर्मराज के न्यायालय में दुष्कर सुकर है, और सुकर दुष्कर / तभी तो कहा है-कर्मणां गहना गतिः। इस के अतिरिक्त गर्भगत जीव के आहार-ग्रहण में और हमारे आहार भक्षण में विशिष्ट अन्तर है। हम जिस प्रकार आहार ग्रहण करने में मुख, जिह्वा आदि की क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं उस प्रकार की भक्षण-क्रिया गर्भगत जीव में नहीं होती। मृगापुत्र के जीवन परिचय में "-गर्भस्थ मृगापुत्र के शरीर की आठ अन्दर की नाड़ियां और आठ बाहर की नाड़ियां पूय और रुधिर का परिस्राव कर रही थीं-" यह ऊपर कह ही दिया गया है। यहां प्रश्न होता है कि मृगापुत्र के शरीर की नाड़ियां जो पूय और रुधिर का परिस्राव कर रही थीं वह कहां जाता था ? मृगापुत्रीय शरीर के ऊपर तो जरायु का बन्धन पड़ा हुआ है जो कि प्राकृतिक है, पूय और रुधिर को बाहर जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं, तब वह क्या जरायु में एकत्रित होता रहता था या उस के निर्गमन का कोई और साधन था ? प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [193
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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