________________ सा शास्त्रीय आधार है। उत्तर-यहां पर विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना उचित है। इस के लिए श्री दशाश्रुतस्कन्ध का उल्लेख प्रमाण है। वहां लिखा है कि महारंभी और महापरिग्रही सम्यग्दृष्टि नरक में जाता है। यदि श्री भगवती सूत्रगत क्रियावादी पद से विशिष्ट सम्यग्दृष्टि अर्थ गृहीत न हो तो उस का भी दशाश्रुतस्कन्ध के साथ विरोध होता है। तात्पर्य यह है कि यदि सामान्यरूप से सभी सम्यग्दृष्टि वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं-यह आशय श्री भगवतीसूत्र के उल्लेख का हो तो श्री दशाश्रुतस्कन्धगत आरम्भ और परिग्रह की विशेषता रखने वाले सम्यग्दृष्टि को नरकप्राप्ति का उल्लेख विरुद्ध हो जाता है जो कि सिद्धान्त को इष्ट नहीं है और यदि क्रियावादी से विशिष्ट क्रियावादी अर्थ ग्रहण करें तो विरोध नहीं रहता। कारण कि जो विशिष्ट सम्यग्दृष्टि है उसी के लिए वैमानिक आयु के बन्ध का निर्देश है न कि सभी के लिए। दूसरे शब्दों में कहें तो श्री भगवतीसूत्र में जिस सम्यग्दृष्टि के लिए वैमानिक आयु के बन्ध का कथन है, वह सामान्य क्रियावादी के लिए नहीं अपितु विशिष्ट क्रियावादी-सम्यग्दृष्टि के लिए है, और जो श्री दशाश्रुतस्कंध सूत्र में महारम्भी तथा महापरिग्रही के लिए नरकप्राप्ति का उल्लेख है वह सामान्य सम्यग्दृष्टि के लिए है, विशिष्ट सम्यग्दृष्टि के लिए नहीं। उस में तो महारम्भ और महापरिग्रह का सम्भव ही नहीं होता। प्रश्न-क्या श्री दशाश्रुतस्कन्धसूत्र के अतिरिक्त श्री भगवतीसूत्र में भी इस विषय का समर्थक कोई उल्लेख है ? उत्तर-हां है। भगवतीसूत्र में ही (श० 1, उ० 2) लिखा है कि विराधक श्रावक की उत्पत्ति जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट ज्योतिषी देवों में होती है। श्रावक के विराधक होने पर भी उसका सम्यक्त्व सुरक्षित रहता है अर्थात् वह क्रियावादी होने पर भी वैमानिक देवों में उत्पन्न न हो कर भवनवासी तथा ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है। इस से भी स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि भगवतीसूत्रगत उक्त क्रियावादी पद से विशिष्ट क्रियावादी का ही ग्रहण करना अभीष्ट है, सामान्य का नहीं। इसलिए श्री सुमुख गाथापति के सम्यग्दृष्टि होने में कोई सन्देह नहीं है। प्रश्न-यदि श्री सुमुख गाथापति को मिथ्यादृष्टि ही मान लिया जाए तो क्या हानि है? उत्तर-यही हानि है कि सुमुख गृहपति का परित्तसंसारी-परिमितसंसारी होना समर्थित नहीं होगा और यह बात शास्त्रविरुद्ध होगी। मिथ्यादृष्टि जीव का सदनुष्ठान अकामनिर्जरा (कर्मनाश की अनिच्छा से भूख आदि के सहन करने से जो निर्जरा होती है वह) का कारण 892 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध