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________________ बनता है और वह-१अकामनिर्जरा वाला संसार को परित्त-परिमित नहीं कर सकता। संसार को परिमित करने के लिए तो सम्यक्त्व की आवश्यकता है। सम्यग्दृष्टि जीव का सदनुष्ठानशुभ कर्म ही सकामनिर्जरा (कर्मनाश की इच्छा से ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का पालन करने से होने वाली निर्जरा) का कारण है और उस से ही संसार परिमित होता है। ___ दूसरी बात-अनन्तानुबंधी क्रोधादि के नाश हुए बिना संसार परिमित नहीं हो सकता और अनन्तानुबंधी क्रोध का नाश सम्यक्त्व पाए बिना नहीं हो सकता। तब सुमुख गृहपति को परित्तसंसारी प्रमाणित करने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसे सम्यग्दृष्टि स्वीकार किया जाए। इस के अतिरिक्त एक बात और भी ध्यान देने योग्य है वह यह कि मिथ्यादृष्टि और उस की क्रिया को भगवान् की आज्ञा से बाहर माना है, जो कि युक्तिसंगत है। इसी न्याय के अनुसार सुमुख गृहपति की दानक्रिया को भी आज्ञाबाह्य ही कहना पड़ेगा, परन्तु वस्तुस्थिति इस के विपरीत है। अर्थात् सुमुख को मिथ्यादृष्टि और उस के सुपात्रदान को आज्ञाविरुद्ध नहीं माना गया है। अगर सुमुख मिथ्यादृष्टि है तो उस की दानक्रिया को आज्ञानुमोदित कैसे माना जा सकता है ? अतः जहां सुमुख की दानक्रिया भगवदाज्ञानुमोदित है वहां उसका सम्यग्दृष्टि होना भी भगवान् के कथनानुकूल ही है। प्रश्न-देवों का सुवर्णवृष्टि करना और "अहोदान अहोदान" की घोषणा करना क्या पापजनक नहीं है ? . - उत्तर-नहीं। इसे एक लौकिक उदाहरण से समझिए / कल्पना करो कि कोई गृहस्थ अपने पुत्र या पुत्री की सगाई करता है। यदि उस ने पुत्र की सगाई की है तो वह लड़की वालों के सम्मान का भाजन बनता है। लड़की का पिता उसे अपनी लड़की का श्वशुर जान कर उस का आदर, सम्मान करता है तथा सभ्य भाषण और भोजनादि से उसे प्रसन्न करने का यत्न * करता है। इस सम्मानसूचक व्यवहार से लड़के का पिता यह निश्चय कर लेता है कि सगाई पक्की हो गई। इन्हें मेरा लड़का और मेरा घर आदि सब कुछ पसन्द है। इसी प्रकार लड़की की सगाई में समझिए। यदि वह अपनी लड़की के श्वशुर का सम्मान करता है और वह उस के सम्मान को स्वीकार कर लेता है तो सगाई पक्की अन्यथा कच्ची समझ ली जाती है। बस इसी से मिलती जुलती बात की पुनरावृत्ति देवों की सुवर्णवृष्टि और देवकृत हर्षघोषणा ने की 1. श्री औपपातिकसूत्र के मूलपाठ में सम्वररहित निर्जरा की क्रिया को मोक्षमार्ग से अलग स्वीकार किया है। उस क्रिया का अनुष्ठान करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव को मोक्षमार्ग का अनाराधक माना गया है। विशेष की जिज्ञासा रखने वाले पाठक श्री स्थानांग सूत्र (स्थान 3, उद्दे० 3) तथा श्री भगवती सूत्र के शतक पहले और उद्देश्य चतुर्थ को देख सकते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [893
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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