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________________ झियाइ। तए णं से सुभद्दे सत्थवाहे भई भारियं ओहय० जाव पासति 2 त्ता एवं वयासीकिं णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय जाव झियासि ?, तए णं सा भद्दा सत्थवाही सुभदं सत्थवाहं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि।तएणं से सुभद्दे सत्थवाहे भद्दाए भारियाए एयमहूँ सोच्चा निसम्म भई भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुह गब्भंसि अम्हाणं पुव्वकयपावप्पभावेणं केइ अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे जीवे ओयरिए तेणं एयारिसे दोहले पाउब्भूए, तं होउ णं एयस्स पसायणं, त्ति कट्ट से सुभद्दे सत्थवाहे केण वि उवाएणं तं दोहलं विणेइ। तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला सम्पन्नदोहला तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। इन पदों का भावार्थ निम्नोक्त है तदनन्तर उस भद्रा सार्थवाही के गर्भ को जब तीन मास पूर्ण हो गए, तब उसको एक दोहद उत्पन्न हुआ कि वे माताएं धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पूर्वभव में पुण्योपार्जन किया है, वे कृतलक्षण हैं अर्थात् उन्हीं के शारीरिक लक्षण फलयुक्त हैं, और उन्होंने ही अपने धनवैभव को सफल किया है, एवं उन का ही मनुष्यसम्बन्धी जन्म और जीवन सफल है, जिन्होंने बहुत से अनेक प्रकार के नगर गोरूपों अर्थात् नगर के गाय आदि पशुओं के तथा जलचर, स्थलचर और खेचर आदि प्राणियों के बहुत मांसों, जो कि तैलादि से तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाए गए हों, के साथ सुरा', मधु, मेरक, जाति, सीधु और प्रसन्ना इन पांच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन विस्वादन (बार-बार आस्वादन) परिभोग करती हुई और दूसरी स्त्रियों को बांटती हुई अपने दोहद (दोहला) को पूर्ण करती हैं। यदि मैं भी बहुत से नगर के गाय आदि पशुओं के और जलचर आदि प्राणियों के बहुत से और नाना प्रकार के तले, भूने और शूलपक्व मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं को एक बार और बार-बार आस्वादन करूं, परिभोग करूं और दूसरी स्त्रियों को भी बांटूं, इस प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करूं, तो बहुत अच्छा हो, ऐसा विचार किया। परन्तु उस दोहद के पूर्ण न होने से वह भद्रा सूखने लगी, चिन्ता के कारण अरुचि होने से भूखी रहने लगी, उस का शरीर रोगग्रस्त जैसा मालूम होने लगा और मुंह पीला पड़ गया तथा निस्तेज हो गया, एवं रात दिन नीचे मुंह किए हुए आर्तध्यान करने लगी। एक दिन सुभद्र सार्थवाह ने भद्रा को पूर्वोक्त प्रकार से आर्तध्यान करते हुए देखा, देखकर उसने उससे कहा कि भद्रे ! तुम ऐसे आर्त्तध्यान क्यों कर रही हो ? सुभद्र सेठ के ऐसा पूछने पर भद्रा बोली-स्वामिन् ! मुझे तीन मास का गर्भ होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ है कि 1. इन पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में दिया जा चुका है। 464 ] श्री विपाक सूत्रम् / चतुर्थ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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