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________________ अवसर पर उसकी ग्रीवा-गरदन में उस्तरा घोंप दो अर्थात् इस प्रकार से तुम्हारे हाथों यदि नरेश का वध हो जाए तो मैं तुम को आधा राज्य दे डालूंगा। तदनन्तर तुम हमारे साथ . उदार-प्रधान (उत्तम) कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत करोगे। तदनन्तर चित्र नामक अलंकारिक ने कुमार नन्दिषेण के उक्त विचार वाले वचन को स्वीकृत किया, परन्तु कुछ ही समय के पश्चात् उस के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से इस बात का पता श्रीदाम नरेश को चल गया तो न मालूम मुझे वह किस कुमौत से मारे। इस विचार के उद्भव होते ही वह भयभीत, त्रस्त उद्विग्न एवं संजात-भय हो उठा और तत्काल ही जहां पर महाराज श्रीदाम थे वहां पर आया एकान्त में दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नाखूनों वाली अंजली करके अर्थात् विनयपूर्वक श्रीदाम नरेश से इस प्रकार बोला___ हे स्वामिन् ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में मूर्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन हो कर आपके वध में प्रवृत्त होना चाह रहा है। वह आप को मार कर स्वयं राज्यश्री-राज्य लक्ष्मी का संवर्धन कराने और स्वयं पालन-पोषण करने की उत्कट अभिलाषा रखता है। इसके अनन्तर श्रीदाम नरेश ने चित्र अलंकारिक से इस बात को सुन कर उस पर विचार किया और अत्यन्त क्रोध में आकर नन्दिषेण को अपने अनुचरों द्वारा पकड़वा कर इस (पूर्वोक्त) विधान-प्रकार से मारा जाए ऐसा राजपुरुषों को आदेश दिया। भगवान कहते हैं कि हे गौतम ! यह नन्दिषेण कुमार इस प्रकार अपने किए हुए अशुभ कर्मों के फल को भोग रहा है। . - टीका-राज्यशासन का प्रलोभी नन्दिषेण हर समय इसी विचार में रहता था कि उसे कोई ऐसा अवसर मिले जब वह अपने पिता श्रीदाम नरेश की हत्या करने मे सफल हो जाए। परन्तु उसे अभी तक ऐसा अवसर प्राप्त नहीं हो सका। तब एक दिन उसने उपायान्तर सोचा और तदनुसार महाराज श्रीदाम के चित्र नामक अलंकारिक को बुलाकर उसने कहा-कि महानुभाव ! तुम महाराज के विश्वस्त सेवादार हो। तुम्हारा उन के पास हर समय बेरोकटोक आना जाना है। तुम्हारे लिए वहां किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है, तब यदि तुम मेरा एक काम करो तो मैं तुम्हें आधा राज्य दे डालूंगा। तुम भी मेरे जैसे बन कर सानन्द अनायासप्राप्त राज्यश्री का यथेच्छ उपभोग करोगे। तुम जानते हो कि मैं इस समय युवराज हूँ। महाराज के बाद मेरा ही इस राज्यसिंहासन पर सर्वे सर्वा अधिकार होगा। इसलिए यदि तुम मेरे काम में - 1. मूर्च्छित, गृद्ध आदि पदों का अर्थ द्वितीय अध्याय में लिखा जा चुका है। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [543
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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