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________________ वाले का उपकार यह है कि उस वस्तु से उस की जीवन यात्रा में मदद मिले और परिणामस्वरूप . सद्गुणों का विकास हो। ___ सभी दान दानरूप एक जैसे होने पर भी उन के फल में तरतम भाव रहता है। यह तरतम भाव दान धर्म की विशेषता के कारण होता है और यह विशेषता मुख्यता दान धर्म के चार अंगों की विशेषता के अनुसार होती है। इन चार अंगों की विशेषता निम्नोक्त है। 1- विधिविशेषता-विधि की विशेषता में देश काल का औचित्य और लेने वाले के सिद्धांत को बाधा न पहुंचे,ऐसी कल्पनीय वस्तु का अर्पण करना,इत्यादि बातों का समावेश होता है / २-द्रव्यविशेषता-द्रव्य की विशेषता में दी जाने वाली वस्तु के गुणों का समावेश होता है / जिस वस्तु का दान किया जाए वह वस्तु लेने वाले पात्र की जीवन यात्रा में पोषक हो कर परिणामतः उसके निजगुण विकास में निमित्त बने, ऐसी होनी चाहिए / ३-दातृविशेषता-दाता की विशेषता में लेने वाले पात्र के प्रति श्रद्धा का होना, उस के प्रति तिरस्कार या असूया का न होना, तथा दान देते समय या दान देने के बाद में विषाद न करना, इत्यादि गुणों का समावेश होता है / ४-पात्रविशेषता-दान लेने वाले व्यक्ति का सत्पुरुषार्थ के लिए ही सतत जागरूक रहना पात्र' की विशेषता है / दूसरे शब्दों में-जो दान ले रहा है उस का अपने आप को . मानवीय आध्यात्मिक विकास की चरम सीमा की ओर झुकाव तथा सदनुष्ठान में निरन्तर सावधानी ही पात्र की विशेषता है / / पात्रता की विशेषता वाले को सुपात्र कहते हैं, तथा सुपात्र को जो दान दिया जाता है, उसे सुपात्रदान कहते हैं। सुपात्रदान कर्मनिर्जरा का साधक है और दाता के लिए संसार समुद्र से पार कर परमात्मपद को प्राप्त करने में सहायक बनता है / सुपात्रदान की सफलता के लिए भावना महान सहायक होती है / भावना जितनी उत्तम एवं सबल होती है, उतना ही सुपात्रदान जीवन के विकास में उपयोगी एवं हितावह रहता है / प्रस्तुत सूत्र के सुखविपाक नामक द्वितीय श्रुतस्कंध के इस प्रथम अध्ययन में स्वनामधन्य परम पुण्यवान श्री सुबाहु कुमार जी का परम पवित्र जीवनवृत्तांत प्रस्तावित हुआ है , जिन्होंने सुमुख गाथापति के भव में महामहिम तपस्विराज श्रीसुदत्त अनगार को उत्कृष्ट परिणामों से दान देकर संसार को परिमित और मनुष्यायु का बन्ध किया था, दूसरे शब्दों में उन्होंने उत्कृष्ट 1. अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्। विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः। तत्त्वार्थसूत्र अ० 7, सूत्र 33/34, के हिन्दी विवेचन में पण्डितप्रवर श्री सुखलाल जी। 784 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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