________________ अह पढमं अज्झयणं अथ प्रथम अध्याय भारतवर्ष धर्मप्रधान देश है / यहां धर्म को बहुत अधिक महत्व प्रदान किया गया है। छोटी से छोटी बात को भी धर्म के द्वारा ही परखना भारत की सब से बड़ी विशेषता रही है। इसके अतिरिक्त धर्म की गुणगाथाओं से बड़े-बड़े विशालकाय ग्रन्थ भरे पड़े हैं / जीवन समाप्त हो सकता है परन्तु धर्म की महिमा का अन्त नहीं पाया जा सकता / धर्म का महत्व बहुत व्यापक है / धर्म दुर्गति का नाश करने वाला है। मनुष्य के मानस को स्वच्छ एवं निर्मल बनाने के साथ-साथ उसे विशाल और विराट बनाता है / अनादि काल से सोई मानवता को यह जागृत कर देता है / हृदय में दया और प्रेम की नदी बहा देता है। यदि बात ज्यादा न बढ़ाई जाए तोधर्म की महिमा अपरम्पार है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा / - शास्त्रों में धर्म के दान, शील, तप और भावना ये चार प्रकार बताये गये हैं। इन में पहला प्रकार दान धर्म है। जैन धर्म में दान की महिमा बहुत मौलिक शब्दों में अभिव्यक्त की गई है / दान देने वाले को स्वर्ग और मोक्ष का अधिकारी बताया है। दान देने से संसार में कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रहती है / दान जीवन के समग्र सद्गुणों का मूल है, अतः उस का विकास पारमार्थिक दृष्टि से समस्त सद्गुणों का आधार है,तथा व्यावहारिक दृष्टि से मानवी व्यवस्था के सामंजस्य की मूलभित्ति है / दान का मतलब है-न्यायपूर्वक अपने को प्राप्त हुई वस्तु का दूसरे के लिए अर्पण करना / यह अर्पण उस के कर्ता और स्वीकार करने वाले दोनों का उपकारक होना चाहिए / अर्पण करने वाले का मुख्य उपकार तो यह है कि उस वस्तु पर से उस की ममता हट जाए, फलस्वरूप उसे सन्तोष और समभाव की प्राप्ति हो। स्वीकार करने 1. दाणं सीलं च तवो भावो, एवं चउव्विहो धम्मो। . सव्वजिणेहिं भणिओ, तहा...................॥ 296 // द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [783