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________________ धारण करती है। मूलार्थ-तदनन्तर भीम कूटग्राह अर्द्धरात्रि के समय अकेला ही दृढ़ बन्धनों से बद्ध और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुध और प्रहरण लेकर घर से निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होता हुआ जहां पर गोमण्डप था वहाँ पर आया आकर अनेक नागरिक पशुओं यावत् वृषभों में से कई एक के ऊधस् यावत् कई एक के कम्बल-सास्ना आदि एवं कई एक के अन्यान्य अंगोपांगों को काटता है, काट कर अपने घर आता है, और आकर अपनी उत्पला भार्या को दे देता है। तदनन्तर वह उत्पला उन अनेकविध शूल्य (शूला-प्रोत) आदि गोमांसों के साथ सुरा आदि का आस्वादन प्रस्वादन आदि करती हुई अपने दोहद की पूर्ति करती है। इस भाँति सम्पूर्ण दोहद वाली,सम्मानित दोहद वाली, विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्न दोहद वाली, और सम्पन्न दोहद वाली वह उत्पला कूटग्राही उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है। टीका-उत्पला को अपने पति देव की ओर से दोहद-पूर्ति का आश्वासन मिला जिस से उसके हृदय को कुछ सान्त्वना मिली, यह गत सूत्र में वर्णन किया जा चुका है। उत्पला को दोहदपूर्ति का वचन दे कर भीम वहां से चल दिया, एकांत में बैठकर उत्पला की दोहद-पूर्ति के लिए क्या उपाय करना चाहिए, इस का उसने निश्चय किया। तदनुसार मध्यरात्रि के समय जब कि चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, और रात्रि देवी के प्रभाव से चारों ओर अन्धकार व्याप्त था, एवं नगर की सारी जनता निस्तब्ध हो कर निद्रादेवी की गोद में विश्राम कर रही थी, भीम अपने बिस्तर से उठा और एक वीर सैनिक की भांति अस्त्र शस्त्रों से लैस हो कर हस्तिनापुर के उस गोमंडप में पहुंचा, जिस का कि ऊपर वर्णन किया गया है। वहां पहुंच कर उसने पशुओं के ऊधस् तथा अन्य अंगोपांगों का मांस काटा और उसे लेकर सीधा घर की ओर प्रस्थित हुआ, घर में आकर उसने वह सब मांस अपनी स्त्री उत्पला को दे दिया। उत्पला ने भी उसे पका कर सुरा आदि के साथ उसका यथारुचि व्यवहार किया अर्थात् कुछ खाया, कुछ बांटा और कुछ का अन्य प्रकार से उपयोग किया। उससे उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हुई तथा वह प्रसन्न चित्त से गर्भ का उद्वहन करने लगी। सूत्रगत "एगे" और "अबीए" ये दोनों पद समानार्थक से हैं, परन्तु टीकाकार महानुभाव ने "एगे" का भावार्थ एकाकी-सहायक से रहित और "अबीए" इस पद का धर्मरूप सहायक से शून्य, यह अर्थ किया है। ["एगे"त्ति सहायताभावात्। "अबीए"त्ति धर्मरूपसहायाभावात्] तथा "सण्णद्ध जाव पहरणे" और "गोरूवाणं जाव वसभाण" एवं "छिंदति 278 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय - [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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