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________________ जाव अप्पेगइयाणं-" इन स्थलों का "-जाव यावत्-" पद प्रकृत द्वितीय अध्ययन में ही पीछे पढ़े गए सूत्र पाठों का स्मारक है। पाठक वहीं से देख सकते हैं। उत्पला अपने मनोभिलषित पदार्थों को प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुई। उस के दोहद की यथेच्छ पूर्ति हो जाने से उसे असीम हर्ष हुआ। इसी से वह उत्तरोत्तर गर्भ को आनन्द पूर्वक धारण करने लगी। सूत्रकार ने भी उत्पला की आंतरिक अभिलाषापूर्ति के सूचक उपयुक्त शब्दों का उल्लेख करके उस का समर्थन किया है। तथा उत्पला के विषय में जो विशेषण दिए हैं उनमें टीकाकार ने निम्नलिखित अन्तर दिखाया है ___ "-संपुण्णदोहल त्ति-" समस्त-वांछितार्थ-पूरणात्। "सम्माणियदोहल त्ति" वांछितार्थ-समानयनात्। “विणीयदोहल त्ति" वाञ्छाविनयनात्। “विछिन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थ-वांछानुबन्ध-विच्छेदात्। “संपन्नदोहल त्ति" विवक्षितार्थभोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति, अर्थात् उत्पला कूटग्राहिणी को समस्त वांछित पदार्थों के पूर्ण होने के कारण सम्पूर्णदोहदा, इच्छित पदार्थों के समानयन के कारण सम्मानितदोहदा, इच्छा-विनयन के कारण विनीतदोहदा, विवक्षितपदार्थों के वांछा के अनुबन्ध-विच्छेद (परम्परा-विच्छेद) के कारण व्युच्छिन्नदोहदा, तथा इच्छित-पदार्थों के भोग उपलब्ध कर सानन्द होने के कारण सम्पन्नदोहदा कहा गया है। - अब सूत्रकार उत्पला के गर्भ की स्थिति पूरी होने के बाद के वृत्तान्त का वर्णन करते . मूल-तते णं सा उप्पला कूड० अण्णया कयाई णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाता। तते णं तेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते। तते णं तस्स दारगस्स आरसियसदं सोच्चा निसम्म हत्थिणाउरे नगरे बहवे नगरगोरूवा जाव वसभा य भीया 4 उव्विग्गा सव्वओ समंता विप्पलाइत्था। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एयारूवं नामधेजं करेंति, जम्हा णं इमेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया 2 सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते। तते णं एयस्स दारगस्स आरसितसई सोच्चा निसम्म हत्थिणाउरेणगरे बहवे नगरगोरूवा यजाव भीया 4 सव्वतो समंता विप्पलाइत्था, 1. टीकाकार श्री अभयदेवसूरि "- महया 2 सद्देणं विग्घुढे विस्सरे आरसिते-" इस पाठ के स्थान पर -महया 2 विग्घुढे चिच्चीसरे आरसिते- ऐसा पाठ मानते हैं। इस पाठ की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं "-महया 2 चिच्ची आरसिए-" महता महता चिच्चीत्येवं चीत्कारेणेत्यर्थः। "आरसिय" त्ति आरसितमारटितमित्यर्थः। अर्थात्- उस बालक ने "चिच्ची" इत्यात्मक चीत्कार के द्वारा महान् शब्द किया। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [279
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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