________________ को ह्रदगलन कहते हैं / अथवा-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिए वस्त्रादि से ह्रद के जल को , छानना हृदगलन कहा जाता है। अर्धमागधीकोष में हृदगलन-शब्द का "-मछली आदि पकड़ने के लिए झरने पर घूमना-शोध निकालना-" ऐसा अर्थ लिखा है। ४-दहमलणं-ह्रदमलनं, ह्रदमध्ये, पौनः पुन्येन परिभ्रमणं, जले वा निस्सारिते पंकमर्दनं-" अर्थात् ह्रद के मध्य में मछली आदि जीवों को ग्रहण करने के लिए पुनः-पुन:बारम्बार परिभ्रमण करना, अथवा-ह्रद में से पानी निकाल कर अवशिष्ट पंक-कीचड़ का मर्दन करना ह्रदमलन कहलाता है। अर्धमागधीकोष में ह्रदमलन के "-१-झरने में तैरना और २-स्रोत में चक्कर लगाना-" ये दो अर्थ पाये जाते हैं। ५-दहमद्दणं-हृदमर्दनम् थोहरादिप्रक्षेपेण ह्रदजलस्य विक्रियाकरणम्-" अर्थात् ह्रद के मध्य में थूहर (एक छोटा पेड़ जिस में गांठों पर से डण्डे के आकार के डण्ठल निकलते हैं, और इस का दूध बड़ा विषैला होता है) आदि के दूध को डाल कर उस के जल को विकृत-खराब कर देना ह्रदमर्दन कहा जाता है। अर्धमागधीकोष में -ह्रदमर्दन- शब्द का अर्थ "-सरोवर में बार-बार घूमने को जाना-जलभ्रमण-" ऐसा अर्थ लिखा है। ६-दहमहणं-हृदमथनम्, हृदजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडनम्-" अर्थात् वृक्ष की शाखाओं के द्वारा ह्रद के जल का विलोडन करना-मथना, ह्रदमथन कहलाता है। ह्रदमन्थन में मच्छीमारों का मत्स्यादि को भयभीत तथा स्थानभ्रष्ट करके पकड़ने का ही प्रधान उद्देश्य रहता है। ७-दहवहणं-ह्रदवहनम्-" इस पद के दो अर्थ होते हैं, जैसे कि १-नाली आदि के द्वारा हृद के पानी को निकालना, अर्थात् ह्रदवहन शब्द "-सरोवर में से पानी निकालने के लिए जो नालिएं होती हैं, उन में से पानी निकाल कर मत्स्य आदि को पकड़ना-" इस अर्थ का परिचायक है। २-हृद से पानी का स्वतः बाहर निकलना अर्थात् हूंद में नौकाओं के प्रविष्ट होने से पानी हिलता है और वह स्वतः ही बाहर निकल जाता है, इस अर्थ का बोध ह्रदवहन शब्द करता है। ८-दहप्पवहणं-ह्रदप्रवहनम्-" इस पद के भी दो अर्थ उपलब्ध होते हैं, जैसे कि-१-मत्स्य आदि को पकड़ने के लिए हृद का बहुत सा पानी निकाल देना। २-मत्स्यादि को ग्रहण करने के लिए नौका द्वारा हृद में भ्रमण करना। इस के अतिरिक्त १-प्रपञ्चल, २-प्रपम्पुल, ३-जृम्भा, ४-त्रिसरा, ५-भिसरा, ६-घिसरा, ७-द्विसिरा, ८-हिल्लिरि, ९-झिल्लिरि, १०-जाल, ये सब मत्स्यादि के पकड़ने के भिन्न-भिन्न साधनविशेष हैं, जिन को वृत्तिकार ने "-मत्स्यबन्धनविशेष:-" 656 ] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध