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________________ तलते और भूनते, तथा उन्हें राजमार्ग में विक्रयार्थ रख कर उनके द्वारा वृत्ति-आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। इस के अतिरिक्त शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किए हुए, भूने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार की सुराओं का सेवन * करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। टीका-प्रकृति का प्रायः यह नियम है कि पुत्र अपने पिता के कृत्यों का ही अनुसरण किया करता है। पिता जो काम करता है प्रायः पुत्र भी उसी को अपनाने का यत्न करता है, और अपने को वह उसी काम में अधिकाधिक निपुण बनाने का उद्योग करता रहता है। समुद्रदत्त मत्स्यबन्ध-मच्छीमार था, परम अधर्मी और परम दुराग्रही था, तदनुसार शौरिकदत्त भी पैतृकसम्पत्ति का अधिकारी होने के कारण इन गुणों से वंचित नहीं रहा। पिता की मृत्यु के कुछ दिनों के बाद शौरिकदत्तं ने पिता के अधिकारों को अपने हाथ में लिया अर्थात् पिता की भांति अब वह सारे मुहल्ले का मुखिया बन गया। मुहल्ले का मुखिया बन जाने के बाद शौरिकदत्त भी पिता की तरह अधर्मसेवी अथच महा लोभी और दुराग्रही बन गया। अपने हिंसाप्रधान व्यापार को अधिक प्रगति देने के लिए उसने अनेक ऐसे वेतनभोगी पुरुषों को रखा जो कि यमुना नदी में जा कर तथा छोटी-छोटी नौकाओं में बैठ कर भ्रमण करते तथा अनेक प्रकार के साधनों के प्रयोग से विविध प्रकार की मछलियों को पकड़ते तथा धूप में सुखाते, इसी भांति अन्य अनेकों वेतनभोगी पुरुष धूप से तप्त-सूखे हुए उन मत्स्यों को ग्रहण करते और उन के मांसों को शूल द्वारा पकाते और तैल से तलते तथा अंगारादि पर भून कर उन को राजमार्ग में रख कर उनके विक्रय से द्रव्योपार्जन करके शौरिकदत्त को प्रस्तुत किया करते थे। इस के अतिरिक्त वह स्वयं भी मत्स्यादि के मांसों तथा 6 प्रकार की सुरा आदि का निरन्तर सेवन करता हुआ सानन्द समय व्यतीत कर रहा था। .. दिनभतिभत्तवेयणा-आदि पदों का अर्थसम्बन्धी विचार निम्नोक्त है. १-दिन्नभतिभत्तवेयणा-" इस पद का अर्थ तीसरे अध्याय में लिखा जा चुका है। .२-एगट्ठिया-" शब्द का अर्धमागधीकोषकार ने -एकास्थिका-ऐसा संस्कृत प्रतिरूप देकर -छोटी नौका-यह अर्थ किया है, परन्तु प्राकृतशब्दमहार्णव नामक कोष में देश्य-देश विशेष में बोला जाने वाला पद मान कर इस के नौका, जहाज ऐसे दो अर्थ लिखे ३-दहगलणं-ह्रदगलनम् हृदस्य मध्ये मत्स्यादिग्रहणार्थं भ्रमणं जलनिस्सारणं वा-" अर्थात् ह्रद बड़े जलाशय एवं झील का नाम है, उस के मध्य में मच्छ आदि जीवों को ग्रहण करने के लिए किए गए भ्रमण का नाम ह्रदगलन है। अथवा-हृद में से जल के निकालने प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [655
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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