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________________ दुर्जनन्याय-से मान भी लें तो वह कोई योग्य शासक नहीं कहा जा सकता और वह ईश्वरत्व से सर्वथा शून्य एवं कल्पनामात्र है। ६-जो लोग ईश्वर को न्यायाधीश के तुल्य बताते हैं और कहते हैं कि जैसे न्यायाधीश अपराधियों को उन के अपराधानुसार दण्डित करता है, उसी भाँति ईश्वर भी संसार की व्यवस्था को भंग नहीं होने देता और यदि कोई व्यवस्था भंग करता है तो उसे तदनुसार दण्ड देता है। इस का समाधान निम्नोक्त है सबसे प्रथम अपराधी को दंड देने में क्या हार्द रहा हुआ है यह जान लेना आवश्यक है। देखिए-जब कोई मनुष्य चोरी करता है तो उस पर राज्य की ओर से अभियोग चलाया जाता है। यह प्रमाणित होने पर कि उस व्यक्ति ने चोरी की है, तो न्यायाधीश उस को कारागार, जुर्माना आदि का उपयुक्त दण्ड देता है। वह अपराधी व्यक्ति तथा अन्य लोग यह जान जाते हैं कि उस व्यक्ति ने चोरी की थी, इसलिए उसको दंड मिला है। चोरी का अपराध तथा उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान होने पर वह व्यक्ति एवं साधारण जनता डर जाती है और चोरी आदि कुवृत्तियों का साहस नहीं करती। यही उद्देश्य दण्ड देने में रहा हुआ है। परन्तु यदि किसी देश का शासक या न्यायाधीश किसी व्यक्ति को पकड़वा कर कारागार में डाल दे और उस पर न तो अभियोग चलाए, न यही प्रकट करे कि उसने क्या अपराध किया है, ऐसी दशा में जनता उस व्यक्ति को निर्दोष एवं उस शासक वा न्यायाधीश को अन्यायी, स्वेच्छाचारी समझेगी। अपराध एवं उसके फलस्वरूप दंड का ज्ञान न होने से जनता कभी भी उस व्यवस्था से शिक्षित नहीं हो सकेगी, और ना ही वह अपराध करने से डरेगी। इसी प्रकार जब कोई व्यक्ति मनुष्ययोनि में जन्म लेता है और जन्म से ही अन्धा, पंगु आदि दूषित शरीर धारण करता है, तो उस व्यक्ति, उसके सम्बन्धी एवं उसके देशवासियों को यह ज्ञात नहीं होगा कि उस व्यक्ति के जीव ने पूर्वजन्म में अमुक पापकर्म किया था, जिसके फलस्वरूपं उसको इस जन्म में यह दूषित शरीर मिला है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य के शरीर में कुष्ठ आदि रोग हो जाता है तो उस व्यक्ति या अन्य मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता कि उस ने अमुक-अमुक पापकर्म पूर्व या इस जन्म में किए हैं, जिन के कारण इनकी यह दुरवस्था हो रही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दण्ड देने का यह अभिप्राय कि मनुष्य को उसके पापकर्म का ऐसा कठोर दंड दिया जाए कि जिस से वह स्वयं तथा जनसमाज ऐसा भयभीत हो जाए कि डर कर भविष्य में उस पापकर्म को न करे-मनुष्य के दैनिक कार्यों से नहीं पाया जाता। ___इसके अतिरिक्त जो दंड देने का सामर्थ्य रखता है, उस में अपराध रोकने की शक्ति भी होनी चाहिए। यदि किसी शासक में यह बल है कि डाकुओं के दल को, उस के अपराध . प्राथन श्री विपाक सूत्रम्
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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