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________________ भेजते समय ईश्वर को यह भी ख्याल नहीं रहता कि जहां मेरी उपासना एवं आराधना होती है, ऐसे मन्दिर, मस्ज़िद आदि स्थानों को नष्ट कर अपने उपासकों की सम्पत्ति को नष्ट न होने दूं। ३-संसार जानता है कि चोर आदि की सहायता लोकविरुद्ध और धर्मविरुद्ध भी है। जो लोग चोर आदि की सहायता करते हैं वे शासनव्यवस्था के अनुसार दण्डित किए जाते हैं। ऐसी दशा में जो ईश्वर को कर्मफलदाता मानते हैं और यह समझते हैं कि किसी को जो दुःख मिलता है वह उस के अपने कर्मों का फल है और फल भी ईश्वर का दिया हुआ है। फिर वे यदि किसी अन्धे की, लूले लंगड़े आदि दुःखी व्यक्ति की सहायता करते हैं। यह ईश्वर के साथ विद्रोह नहीं तो और क्या है ? क्या वे ईश्वर के चोर की सहायता नहीं कर रहे हैं ? और क्या ईश्वर ऐसे द्रोही व्यक्तियों पर प्रसन्न रह सकेगा? तथा ऐसे दया, दान आदि सदनुष्ठानों का कोई महत्त्व रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कदापि नहीं। ४-यदि ईश्वर जीवों के किए हुए कर्मों के अनुसार उनके शरीरादि बनाता है तो कर्मों की परतन्त्रता के कारण वह ईश्वर नहीं हो सकता, जैसे कि-जुलाहा। तात्पर्य यह है कि जो स्वतंत्र है, समर्थ है, उसी के लिए ईश्वर संज्ञा ठीक हो सकती है। परतन्त्र के लिए नहीं हो सकती। जुलाहा यद्यर्पि कपड़े बनाता है परन्तु परतन्त्र है और असमर्थ है। इसलिए उसे ईश्वर नहीं कह सकते। . ५-किसी प्रान्त में किसी सुयोग्य न्यायशील शासक का शासन हो तो उसके प्रभाव से चोरों, डाकुओं आदि का चोरी आदि करने में साहस ही नहीं पड़ता और वे कुमार्ग छोड़ कर सन्मार्ग पर चलना आरम्भ कर देते हैं, जिससे प्रान्त में शांति हो जाती है और वहां के लोग निर्भयता के साथ आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत करने लग जाते हैं। इसके विपरीत यदि कोई शासक लोभी हो, कामी हो, कर्त्तव्यपालन की भावना से शून्य हो उसके शासन में अनेकविध उपद्रव होते हैं और सर्वतोमुखी अराजकता का प्रसार होता है, लोग दुःख के मारे त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। स्वर्गतुल्य जीवन भी नारकीय बन जाता है, ऐसा संसार में देखा जाता है। परन्तु यह समझ में नहीं आता जब कि संसार का शासक ईश्वर दयालु भी है, सर्वज्ञ भी है तथा सर्वदर्शी भी है, फिर भी संसार में बुराई कम नहीं होने पाती। मांसाहारियों, व्यभिचारियों और चोरों आदि लोगों का आधिक्य ही दृष्टिगोचर होता है। धर्मियों की संख्या बहुत कम मिलती है। ऐसी दशा में प्रथम तो ईश्वर संसार का शासक है ही नहीं यह ही कहना होगा। यदि-तुष्यतु ... 1. कर्मापेक्षः शरीरादिर्देहिनां घटयेद्यदि। न चैवमीश्वरो न स्यात् पारतन्त्र्यात् कुविंदवत्। (सृष्टिवादपरीक्षा में श्री चन्द्रसैन वैद्य) प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [65
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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