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________________ के दंडस्वरूप. कारागृह (जेल) में बन्द कर सकता है अथवा प्राणदंड दे सकता है तो उस शासक में यह भी.शक्ति होती है कि यदि उस को यह ज्ञात हो जाए कि डाकुओं का दल अमुक घर में अमुक समय पर डाका डाल कर धनापहरण एवं गृहवासियों की हत्या करेगा तो डाका डालने से पहले ही उन-उन डाकुओं के दल को पुलिस अथवा सेना के द्वारा डाका डालने के महान अपराध से रोके। कर्मफलप्रदाता ईश्वर तो सर्वशक्तिसम्पन्न, दयालु, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी है। वह जानता है कि कौन क्या अपराध करेगा। तब उसे चाहिए कि अपराध करने वाले की भावना बदल दे अथवा उसके मार्ग में ऐसी बाधाएं उपस्थित कर दे कि जिस से वह अपराध कर ही न सके। यदि वह अपराध करने वाले के इरादे को जानता है और अपराध रोकने का सामर्थ्य भी रखता है परन्तु रोकता नहीं, अपराध करने देता है, और फिर अपराध के फलस्वरूप उसे दंड देता है तो उस को दयालु वा न्यायी नहीं कहा जा सकता, उसे तो स्वेच्छाचारी और कर्त्तव्यविमुख ही कहना होगा। ७-संसार में अनन्त जीव हैं। प्रत्येक जीव मन, वचन और काया से प्रतिक्षण कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है / क्षण-क्षण की क्रियाओं का इतिहास लिखना एवं उनका फल देना यदि असंभव नहीं तो अत्यन्त दुष्कर अवश्य है। जब एक जीव के क्षण-क्षण के कार्य का ब्योरा रखना एवं उस का फल देना इतना कठिन है तो संसार के अनन्त जीवों की क्षण-क्षण क्रियाओं का ब्योरा रखना उनका फल देना, उस विशेष चेतन व्यक्ति के लिए कैसे सम्भव होगा? इस के अतिरिक्त संसार के अनन्त जीवों के क्षण-क्षण में कृतकर्मों के फल देने में लगे रहने से उस विशेष चेतन व्यक्ति का चित्त कितना चिन्तित या व्यथित होगा और वह कैसे शान्ति और अपने आनन्दस्वरूप में मग्न रह सकेगा, इन प्रश्नों का कोई सन्तोषजनक उत्तर समझ में नहीं आता। . ऊपर के ऊहापोह से यह निश्चित हो जाता है कि जीवों के कर्मफल भुगताने में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। प्रत्युत कर्म स्वतः ही फलप्रदान कर डालता है। जैनेतर धर्मशास्त्र भी इस तथ्य का पूरा-पूरा समर्थन करते हैं। भगवद्गीता में लिखा है न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ (अ० 5 / 14) - अर्थात् ईश्वर न तो सृष्टि बनाता है और न कर्म ही रचता है और न कर्मों के फल को ही देता है। प्रकृति ही सब कुछ करती है। तात्पर्य यह है कि जो जैसा करता है वह वैसा फल पा लेता है। प्राक्कथन] श्री विपाक सूत्रम् [67
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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