SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 646
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "-जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन-" यह अभियुक्तोक्ति इस बात में सबल प्रमाण है कि भोजन से ही मन बनता है। मनुष्य जिन पशु पक्षियों का मांस खाता है, उन्हीं पशु पक्षियों के गुण, आचरण आदि उस में उत्पन्न हो जाते हैं। उन की आकृति और प्रकृति वैसी ही क्रमशः बनती चली जाती है। दूसरे शब्दों में सात्विक भोजन करने से सतोगुणमयी प्रकृति बन जाती है। राजसी भोजन करने से रजोगुणमयी और तामस भोजन करने से तमोमयी प्रकृति बन जाती है। अतः खाने के विषय में शान्तचित्त से तथा स्वच्छ हृदय से विचार करते हुए मनुष्य का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह मानव की प्रकृति को छोड़ कर पाशविक प्रकृति का आश्रयण न करे, अन्यथा उसे नरकों में भीषणातिभीषण दुःखों का उपभोग करना पड़ेगा। शास्त्रों के परिशीलन से पता चलता है कि मांस न खाने वाला और प्राणियों पर दया करने वाला मनुष्य समस्त जीवों का आश्रयस्थान एवं विश्वासपात्र बन जाता है, उस से संसार में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं होने पाता और न वह ही किसी द्वारा उद्वेग का भाजन बनता है। वह निर्भय रहता है और दीर्घायु उपलब्ध करता है। बीमारी उस से कोसों दूर रहती है। इस के अतिरिक्त मांस के न खाने से जो पुण्य उपलब्ध होता है उस के समान पुण्य न सुवर्ण के दान से होता है और न गोदान एवं न भूमि के दान से प्राप्त हो सकता है। ___मांसाहार स्वास्थ्य को भी विशेष रूप से हानि ही पहुँचाता है। मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार अधिक परिपुष्ट एवं बुद्धिशाली बनाता है। एक बार-मांसभक्षण करना अच्छा है या बुरा ?-इस बात की परीक्षा अमेरिका में दस हज़ार विद्यार्थियों पर की गई थी। पांच हज़ार विद्यार्थी शाक, फल, फूल आदि पर रखे गए थे जब कि पांच हजार विद्यार्थी मांसाहार पर। छ: महीने तक यह प्रयोग चालू रहा। इस के बाद जो जांच की गई उससे मालूम हुआ कि जो विद्यार्थी मांसाहार पर रखे गए थे उन की अपेक्षा शाकाहारी विद्यार्थी सभी बातों में अग्रेसरतेज़ रहे। शाकाहारियों में दया, क्षमा आदि मानवोचित गुण अधिक परिमाण में विकसित हुए तथा मांसाहारियों की अपेक्षा शाकाहारियों में बल अधिक पाया गया और उन का विकास भी बहुत अच्छा हुआ। इस परीक्षा के फल को देख कर वहां के लाखों मनुष्यों ने मांस खाना छोड़ दिया। इस के अतिरिक्त आप पक्षियों पर दृष्टि डालिए। क्या आप ने कभी कबूतर को कीड़े खाते देखा है ? उत्तर होगा-कभी नहीं। परन्तु कौवे को ? उत्तर होगा-हां ! अनेकों बार / आप 1. शरण्यः सर्वभूतानां, विश्वास्यः सर्वजन्तुषु। अनुद्वेगकरो लोके, न चाप्युद्विजते सदा॥ अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुजः सदा। भवत्यभक्षयन् मांसं, दयावान् प्राणिनामिह॥ हिरण्यदानैर्गोदानभूमिदानैश्च सर्वशः। मांसस्याभक्षणे धर्मो, विशिष्ट इति नः श्रुतिः॥ (महा अनु० 115/30-42-43) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [637
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy