________________ हो उस वस्तु का ग्रहण करना। ५-तुच्छौषधिभक्षणता-जिस में क्षुधानिवारक भाग कम है, और व्यर्थ का भाग अधिक है, ऐसे पदार्थ का सेवन करना / अथवा-जिस वस्तु में खाने योग्य भाग थोड़ा हो और फैंकने योग्य भाग अधिक हो, ऐसी वस्तु का ग्रहण करना। उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत का दूसरा विभाग कर्म है अर्थात् श्रावक को उपभोग्य और परिभोग्य पदार्थों की प्राप्ति के लिए जिन धन्धों में गाढ़ कर्मों का बन्ध होता है वे धन्धे नहीं करने चाहिएं। अधिक पापसाध्य धन्धों को ही शास्त्रीय भाषा में कर्मादान कहते हैं। कर्मादान-कर्म और आदान इन पदों से निर्मित हुआ है, जिस का अर्थ है-जिस में गाढ़ कर्मों का आगमन हो। कर्मादान 15 होते हैं। उन के नाम तथा उन का अर्थसम्बन्धी ऊहापोह निम्नोक्त १-इङ्गालकर्म-इसे अङ्गारकर्म भी कहा जाता है। अङ्गारकर्म का अर्थ है-लकडियों के कोयले बनाना और उन्हें बेच कर आजीविका चलाना। इस कार्य से 6 काया के जीवों की महान् हिंसा होती है। २-वनकर्म-जंगल का ठेका लेकर, वृक्ष काट कर उन्हें बेचना, इस भान्ति अपनी आजीविका चलाना। इस कार्य से जहां स्थावर प्राणियों की महान् हिंसा होती है, वहां त्रस जीवों की भी पर्याप्त हिंसा होती है। वन द्वारा पशु पक्षियों को जो आधार मिलना है, उन्हें इस कर्म से निराधार बना दिया जाता है। ३-शाकटिक कर्म-बैलगाड़ी या घोड़ा गाड़ी आदि द्वारा भाड़ा कमाना। अथवागाड़ा-गाड़ी आदि वाहन बना कर बेचना या किराए पर देना। __ ४-भाटीकर्म-घोड़ा, ऊंट, भैंस गधा, खच्चर, बैल आदि पशुओं को भाड़े पर दे कर, उस भाड़े से अपनी आजीविका चलाना। इस में महान हिंसा होती है, क्योंकि भाड़े पर लेने वाले लोग अपने लाभ के सन्मुख पशुओं की दया की उपेक्षा कर डालते हैं। ५-स्फोटीकर्म-हल, कुदाली आदि से पृथ्वी को फोड़ना और उस में से निकले हुए पत्थर, मिट्टी, धातु, आदि खनिज पदार्थों द्वारा अपनी आजीविका चलाना। ६-दन्तवाणिज्य-हाथी आदि के दान्तों का व्यापार करना। दान्तों के लिए अनेकानेक प्राणियों का वध होता है, इसलिए भगवान् ने श्रावकों के लिए इस का निषेध किया है। ____७-लाक्षावाणिज्य-लाख वृक्षों का मद होता है, उस के निकालने में त्रस जीवों की बहुत हिंसा होती है। इसलिए श्रावक को लाख का व्यापार नहीं करना चाहिए। ८-रसवाणिज्य-रस का अर्थ है-मदिरा आदि द्रव पदार्थ, उन का व्यापार करना। 836 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध