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________________ मदिराओं का एक बार आस्वादन करती, बार-बार स्वाद लेती, परिभोग करतीं और अन्य स्त्रियों को देती हुईं दोहद को पूर्ण करती हैं। सो यदि मैं भी यावत् अर्थात् इसी प्रकार से श्रीदाम राजा के हृदय के मांस का छ: प्रकार की मदिराओं के साथ उपभोग आदि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करूं तो अच्छा हो। ऐसा सोच कर वह उस दोहद के अपूर्ण रहने. पर यावत् अर्थात् सूखने लगी। मांसरहित, निस्तेज, रुग्ण और रोगग्रस्त शरीर वाली एवं हताश होती हुई आर्त्तध्यानमूलक विचार करने लगी। ऐसी स्थिति में बैठी हुई उस बन्धुश्री को एक समय राजा ने देखा और इस परिस्थिति का कारण पूछा। तब उस बन्धुश्री ने अपना सब वृत्तान्त कह सुनाया। तदनन्तर मथुरानरेश श्रीदाम ने उस बन्धुश्री देवी के उस दोहद को किसी एक उपाय से अर्थात् जिस से वह समझ न सके इस प्रकार अपने हृदयमांस के स्थान पर रखी हुई मांस के सदृश अन्य वस्तुओं के द्वारा पूर्ण किया। फिर बन्धुश्री देवी ऐसा करने से उस दोहद के सम्पूर्ण होने पर, सम्मानित होने पर, . ' इष्ट वस्तु की अभिलाषा के परिपूर्ण हो जाने पर उस गर्भ को धारण करने लगी। अस्तु, अब नन्दिषेण ने स्वयं राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए, अपने पिता श्रीदाम को मरवाने के लिए जो षडयन्त्र रचा और उस में विफल होने से उस को जो दंड भोगना पड़ा, उस का वर्णन अग्रिम सूत्र में किया जाता है मूल-तते णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रण्णो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी-तुमं णं देवाणुप्पिए! सिरिदामस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु अन्तेउरे य दिण्णवियारे सिरिदामस्स रण्णो अभिक्खणं 2 अलंकारियं कम्मं करेमाणे विहरसि, तंणं तुमं देवाणुप्पिए! सिरिदामस्स रण्णो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गीवाए खुरं निवेसेहि। तए णं अहं तुम अद्धरजियं करिस्सामि, तुम अम्हेहिं सद्धिं उराले भोगभोगे भुञ्जमाणे विहरिस्ससि। तते णं से चित्ते अलंकारिए णंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमढे पडिसुणेति, तते णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमे एयारूवे जाव समुप्पजित्था-जति णं ममं सिरिदामे राया एयमढें आगमेति, तते णं ममं ण णज्जति केणइ असुभेणं कुमारेणं मारिस्सति त्ति कट्ट भीए 4 जेणेव सिरिदामे राया तेणेव उवागच्छइ 2 सिरिदामं रायं रहस्सियं करयल• जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! णंदिसेणे कुमारे रज्जे जाव मुच्छिते ४इच्छति तुब्भे जीविताओ ववरोवेत्ता सयमेव रजसिरिं कारेमाणे श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध 540]
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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