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________________ वाले अर्थात् प्रायश्चित करने वाले को आलोचित-प्रतिकान्त कहते हैं। आलोचना-गुरुजनों के आदेशानुसार पाप निवृत्ति के लिए प्रायश्चित करना। प्रतिक्रमण-प्रमाद वश शुभयोग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद शुभ योग को प्राप्त करना अर्थात् अशुभ व्यापार से निवृत्त हो कर शुभ योगों में प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण है, दूसरे शब्दों-में-सावद्य प्रवृत्ति में जितने आगे बढ़े थे उतने ही पीछे हट जाना तथा निरवद्य प्रवृत्ति में सावधान हो जाना, अथवा साधु तथा गृहस्थों द्वारा प्रातः सांय करणीय एक अत्यावश्यक अनुष्ठान को प्रतिक्रमण कहते हैं। आलोचना और प्रतिक्रमण की फलश्रुति का उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र [अध्याय 29] में इस प्रकार है प्रश्न- हे भदन्त ! आलोचना से जीव किस गुण को प्राप्त करता है ? उत्तर-आलोचना से यह जीव मोक्षमार्ग के विघातक, अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, माया, निदान और मिथ्यादर्शनरूप शल्यों को दूर कर देता है तथा ऋजुभाव-सरलता को प्राप्त करता है। ऋजुभाव प्राप्त करके माया से रहित होता हुआ यह जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नहीं बान्धता और पूर्व में बन्धे हुए की निर्जरा कर देता है। प्रश्न-हे भगवान् ! प्रतिक्रमण से इस जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर- प्रतिक्रमण से जीव व्रतों के छिद्रों को ढांपता है, अर्थात् ग्रहण किए हुए व्रतों को दोषों से बचाता है। फिर शुद्ध व्रतधारी होकर आस्रवों को रोकता हुआ आठ प्रवचन माताओं में [पांचसमिति और तीन गुप्ति के पालन में] सावधान हो जाता है, तथा विशुद्ध 1. प्रतीपं क्रमण प्रतिक्रमणं, एतदुक्तं भवति-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगानुपक्रान्तस्य शुभेष्वेव गमनमिति। उक्तं च"स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः प्रतिक्रमणमुच्यते॥१॥ क्षयोषशमिकाद् भावादौदयिकस्य वशं गतः। तत्रापि च स एवार्थः प्रतिकूलगमात् स्मृतः॥२॥" . आलोयणाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आलोयणाएणं मायानियाणमिच्छादसणसल्लाणं मोक्खमग्गविग्घाणं अणंत-संसार-बंधणाणं उद्धरणं करेइ। उज्जुभावं च जणयइ। उ इवन्ने य णं जीवे अमाई इत्थीवेय-नपुंसग-वेयं च न बंधइ। पुव्वबद्धं च णं निजरेइ // 5 // छाया-आलोचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आलोचनया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानां, अनन्तसंसारवर्द्धनानामुद्धरणं करोति / ऋजुभावं च जनयति / ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवः अमायी स्त्रीवेदनपुंसकवेदं च न बध्नाति, पूर्वबद्धं च निर्जरयति॥५॥ 3. पडिक्कमणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाणि पिहेइ। पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबल-चरिते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ // 11 // प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [215
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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