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________________ से चलता है। मनुष्य की गणना ऐसे ही जीवों में होती है। (13) मांसाहारी पशुओं का जीवननिर्वाह फलों से नहीं हो सकता, जब कि मनुष्य मांस के बिना ही अपने जीवन को चला सकता है। (14) मनुष्य को यदि मनोरंजन के लिए किसी स्थान में जाने की भावना उठे तो वह बागों, फुलवाड़ियों और वनस्पति से लहलहाते हुए स्थानों में जाता है, किन्तु मांसाहारी जीव वहां जाते हैं, जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल व्याप्त हो रहा हो। (15) मनुष्य को यदि ऐसे स्थान में बहुत समय तक रखा जाए कि जहां मृतक शरीरों की दुर्गन्ध से वायुमण्डल परिपूर्ण हो रहा हो तो वह शीघ्र ही रोगी हो कर जीवन से हाथ धो बैठेगा, किन्तु मांसाहारी पशुओं की इस अवस्था में भी ऐसी स्थिति नहीं होती, प्रत्युत वे ऐसे दुर्गन्धपूर्ण स्थानों में जितना काल चाहें ठहर सकते हैं, और उन के स्वास्थ्य की किसी भी प्रकार की हानि नहीं होने पाती। ऐसी और अनेकानेक युक्तियां भी उपलब्ध हो सकती हैं परन्तु विस्तारभय से वे सभी यहां नहीं दी जा रही हैं। सारांश यह है कि इन सभी युक्तियों से यह स्पष्ट प्रमाणित एवं सिद्ध हो जाता है कि मांसाहार जहां शास्त्रीय दृष्टि से त्याज्य है, वहां वह मानव की प्रकृति के भी सर्वथा विपरीत है तथा मानव की शरीर-रचना भी उसे मांसाहार करने की आज्ञा नहीं देती। अतः सुखाभिलाषी प्राणी को मांसाहार की जघन्य प्रवृत्ति से सर्वथा दूर रहना चाहिए। अन्यथा धन्वन्तरि वैद्य की भांति नारकीय दुःखों का उपभोग करने के साथ-साथ जन्ममरण के प्रवाह में प्रवाहित होना पड़ेगा। प्रस्तुत सूत्र पाठ में धन्वन्तरि वैद्य को आयुर्वेद के आठ अंगों के ज्ञाता बतलाते हुए आठ अंगों के नामों का भी निर्देश कर दिया गया है। उन में से प्रत्येक की टीकानुसारिणी व्याख्या निम्नलिखित है (1) कौमारभृत्य-जिस में स्तन्यपायी बालकों के पालन-पोषण का वर्णन हो, तथा जिस में दूध के दोषों के शोधन का और दूषित स्तन्य-दुग्ध से उत्पन्न होने वाली व्याधियों के शामक उपायों का उल्लेख हो, ऐसे शास्त्रविशेष की कौमारभृत्य संज्ञा होती है। कुमाराणां बालकानां भृतौ पोषणे साधु कौमारभृत्यम्, तद्धि शास्त्रं कुमारभरणस्य क्षीरस्य दोषाणां संशोधनार्थं दुष्टस्तन्यनिमित्तानां व्याधीनामुपशमनार्थं चेति। (2) शालाक्य-जिस में शलाका-सलाई से निष्पन्न होने वाले उपचार का वर्णन हो और जो धड़ से ऊपर के कान, नाक और मुख आदि में होने वाले रोगों को उपशान्त करने के काम में आए, ऐसा तंत्र-शास्त्र शालाक्य कहलाता है। शलाकायाः कर्म शालाक्यम्, ' प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [577
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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