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________________ तत्प्रतिपादकं तंत्रमपिशालाक्यम्, तद्धि ऊर्ध्वजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थम्। (3) शाल्यहत्य-जिस शास्त्र में शल्योद्धार-'शल्य के निकालने का वर्णन हो, अर्थात् उस के निकालने का प्रकार बतलाया गया हो, उसे शाल्यहत्य कहते हैं / शल्यस्य हत्या हननमुद्धार इत्यर्थः शल्यहत्या, तत्प्रतिपादकं शास्त्रं शाल्यहत्यमिति। (4) कायचिकित्सा-जिस में काय अर्थात् ज्वरादि रोगों से ग्रस्त शरीर की चिकित्सा-रोगप्रतिकार का विधान वर्णित हो, उस शास्त्र का नाम कायचिकित्सा है। इस में शरीर के मध्यभाग में होने वाले ज्वर तथा अतिसार-विरेचन प्रभृति रोगों का उपशान्त करना वर्णित होता है। कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्तशरीरस्य चिकित्सा रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत् कायचिकित्सैव, तत्तंत्रं हि मध्यांगसमाश्रितानां ज्वरातिसारादीनां शमनार्थं चेति। (5) जांगुल-जिस में सर्प, कीट, मकड़ी आदि विषैले जन्तुओं के अष्टविध विष को उतारने-दूर करने तथा विविध प्रकार के विषसंयोगों के उपशान्त करने की विधि का वर्णन हो, उसे जांगुल कहते हैं / विषविघातक्रियाभिधायकं जंगोलमगदतंत्रम्, तद्धि सर्पकीटलूताद्यष्टविषविनाशार्थम्, विविधविषसंयोगोपशमनार्थं चेति। (6) भूतविद्या-जिस शास्त्र में भूतों के निग्रह का उपाय वर्णित हो, उसे भूतविद्या कहते हैं। यह शास्त्र देव, असुर, गन्धर्व, यक्ष और राक्षस आदि देवों के द्वारा किए गए उपद्रवों को शान्ति-कर्म और बलिप्रदानादि से उपशान्त करने में मार्गदर्शक होता है। भूतानां निग्रहार्था विद्या, सा हि देवासुरगंधर्वयक्षराक्षसाधुपसृष्टचेतसां शान्तिकर्मबलिकरणादिभिर्ग्रहोपशमनार्थं चेति। (7) २रसायन-प्रस्तुत में रस शब्द अमृतरस का परिचायक है। आयन प्राप्ति को कहते हैं / अमृतरस आयुरक्षक, मेधावर्धक और रोग दूर करने में समर्थ होता है, उस की विधि आदि के वर्णन करने वाले शास्त्र को रसायन कहते हैं। रसोऽमृतरसस्तस्यायनं प्राप्तिः रसायनम्, तद्धि वयःस्थापनम्, आयुर्मेधाकरम्, रोगापहरणसमर्थं च, तदभिधायकं तंत्रमपि रसायनम्। 1. शल्य-द्रव्य और भाव से दो प्रकार का होता है। द्रव्यशल्य-कांटा, भाला आदि पदार्थ हैं, तथा माया (छल कपट), निदान (नियाना) और मिथ्यादर्शन (मिथ्याविश्वास) ये तीनों भावशल्य कहलाते हैं। प्रकृत में शल्य शब्द से द्रव्यशल्य का ग्रहण करना सूत्रकार को इष्ट है। 2. काशी नगरी प्रचारिणी सभा की ओर से प्रकाशित संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर में-रसायन शब्द के(१) वैद्यक के अनुसार वह औषध जिस के खाने से आदमी वृद्ध या बीमार न हो (2) पदार्थों के तत्त्वों का ज्ञान (3) वह कल्पित योग जिस के द्वारा तांबे से सोना बनना माना जाता है-इतने अर्थ लिखे हैं, और रसायनशास्त्र 578 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [ प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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