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________________ तलवार की स्थिति तक ही वश में रह सकते हैं, पीछे से वे शत्रु बनते हैं और समय आने पर. सारा बदला चुका लेते हैं। राम अकेला था, निस्सहाय था, जंगल का विहारी था और रावण था लंकेश, परन्तु प्रजा ने किस का साथ दिया ? राम का, न कि रावण का / सारांश यह है कि तलवार चलाने में वीरता नहीं, वीरता तो उस काम में है जिस से अपना और दूसरों का हित सम्पन्न हो, कल्याण हो। दूसरी बात यदि बाहरी शत्रुओं को जीता तो क्या जीता? इस में तो कोई असाधारण वीरता नहीं, वीरता तो आन्तरिक शत्रुओं की विजय में है। उन का दमन करने वाला ही सच्चा वीर है। काम, क्रोधादि जितने भी आन्तरिक शत्रु हैं वे तलवार से कभी जीते नहीं जा सकते, इन पर तलवार का कोई असर नहीं होता। उन के जीतने का तो एकमात्र साधन संयमव्रत है। संयम की तलवार में जितना बल है उस से तो शतांश या सहस्रांश भी इस बाहर से चमकने वाली लोहे की जड़ तलवार में नहीं है। संयम की तलवार जहां अन्दर के काम, क्रोधादि को मार भगाने में शक्तिशाली है, वहां बाहर के शत्रुओं को पराजित करने में भी वह सिद्धहस्त है। मैं तो इसी उद्देश्य से अर्थात् इन्हीं अन्तरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने आप को संयम की तलवार से सन्नद्ध कर रहा हूँ, परन्तु आप उस में प्रतिबन्ध बन रहे हैं। क्या आप के हृदय में मेरी इस आदर्श वीरोचित तैयारी के लिए प्रोत्साहन देने की भावना जागृत नहीं होती ? अवश्य होनी चाहिए। क्या ही अच्छा हो, यदि आप अपने हाथ से मेरा निष्क्रमणाभिषेक करावें और प्रसन्नचित्त से मुझे भगवान् के चरणों में समर्पित करें। मेघकुमार के सदुत्तर ने महाराज श्रेणिक को भी मौन करा दिया और माता ने भी समझ लिया कि मेघकुमार अब रुक नहीं सकेगा। तब इस से तो यही अच्छा है कि इस के श्रेयसाधक कार्य में अब प्रतिबन्ध उपस्थित न किया जाए। इस विचार के अनन्तर मेघकुमार को संबोधित करते हुए माता बोली-अच्छा, बेटा ! यदि तुम्हारी यही इच्छा है तो जाओ, वीरोचित धर्म का वीरवेष पहन कर उस की प्रतिष्ठा को अधिक से अधिक बढ़ाने का उद्योग करते हुए, इच्छित विजय प्राप्त करो, यही मेरा हार्दिक आशीर्वाद है। . दीक्षा के लिए उद्यत हुए मेघकुमार को इस तरह से माता-पिता का समझाना भी रहस्य से खाली नहीं है। उस में माता-पिता के एक कर्त्तव्य की सूचना निहित है। इस के अतिरिक्त माता-पिता इस बात की जांच भी करते हैं कि हमारा पुत्र किसी अमुक सांसारिक वस्तु की कमी से तो साधु नहीं बन रहा है ? इस के अतिरिक्त जांच करने से "-अमुक का पुत्र अमुक कमी से साधु बन गया" इस अपवाद से अपने आप को बचाया जा सकता है। इसीलिये माता ने अन्य बातों के कहने के साथ-साथ अन्त में यह भी कह डाला कि बेटा ! कम से कम एक दिन की राज्यश्री का उपभोग तो अवश्य करो-ऐसा कहने से "संयम को श्रेष्ठ समझता है या 930] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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