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________________ जी कलेजा निकाल कर उसे अपनी किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए उपयोग में लाता है, वह मानव-है या राक्षस इस का निर्णय विज्ञ पाठक स्वयं कर सकते हैं। सूत्रगत वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मानव प्राणी का जीवन तुच्छ पशु के जीवन जितना भी मूल्य नहीं रखता था और सब से अधिक आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार की पापपूर्ण प्रवृति का विधायक एक वेदज्ञ ब्राह्मण था। चारों वर्गों में से प्रतिदिन एक-एक बालक की, अष्टमी और चतुर्दशी में दो-दो, चतुर्थ मास में चार-चार तथा छठे मास में आठ-आठ और सम्वत्सर में सोलह-सोलह बालकों की बलि देने वाला पुरोहित महेश्वरदत्त मानव था या दानव इस का निर्णय भी पाठक स्वयं ही करें। ... उस की यह नितान्त भयावह शिशुघातक प्रवृत्ति इतनी संख्या पर ही समाप्त नहीं हो जाती थी, किन्तु जिस समय जितशत्रु नरेश को किसी अन्य शत्रु के साथ युद्ध करने का अवसर प्राप्त होता तो उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रत्येक वर्ण के 108 बालकों के हृदयगत मांसपिंडों को निकलवा कर उन के द्वारा शान्तिहोम किया जाता। इस के अतिरिक्त सूत्रगत वर्णन को देखते हुए तो यह मानना पड़ेगा कि ऐहिक स्वार्थ के चंगुल में फंसा हुआ मानव प्राणी भयंकर से भयंकर अपराध करने से भी नहीं झिझकता। फिर भविष्य में उस का चाहे कितना भी अनिष्टोत्पादक परिणाम क्यों न हो ? तात्पर्य यह है कि नीच स्वार्थी से जो कुछ भी अनिष्ट बन पड़े, वह कम है। . महेश्वरदत्त के इस हिंसाप्रधान होम-यज्ञ के अनुष्ठान से जितशत्रु नरेश को अपने शत्रुओं पर सर्वत्र विजय प्राप्त होती, और उसके सन्मुख कोई शत्रु खड़ा न रह पाता था। या तो वहीं पर नष्ट हो जाता या परास्त हो कर भाग जाता। इसी कारण महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु नरेश का सर्वाधिक सन्मानभाजन बना हुआ था, और राज्य में उस का काफी प्रभाव था। ...यहां पर संभवतः पाठकों के मन में यह सन्देह अवश्य उत्पन्न होगा कि जब शास्त्रों में जीववध का परिणाम अत्यन्त कटु वर्णित किया गया है, और सामान्य जीव की हिंसा भी इस जीव को दुर्गति का भाजन बना देती है तो उक्त प्रकार की घोर हिंसा के आचरण में कार्यसाधकता कैसे ? फिर वह हिंसा भी शिशुओं की एवं शिशु भी चारों वर्गों के ? तात्पर्य यह है कि जिस आचरण से यह मानव प्राणी परभव में दुर्गति का भाजन बनता है, उस के अनुष्ठान से ऐहिक सफलता मिले अर्थात् अभीष्ट कार्य की सिद्धि सम्पन्न हो, यह एक विचित्र समस्या है, जिस के असमाहित रहने पर मानव हृदय का संदेह की दलदल में फंस जाना अस्वाभाविक नहीं है। - यद्यपि सामान्य दृष्टि से इस विषय का अवलोकन करने वाले पाठकों के हृदय में उक्त प्रथम श्रुतस्कंध ] श्री विपाक सूत्रम् / पंचम अध्याय [493
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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