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________________ खर्खरा-अश्वोत्त्रासनाय चर्ममया वस्तुविशेषाःस्फुटितवंशा वा तैर्हन्यमानं ताड्यमानम् " अर्थात् अश्व को संत्रस्त करने के लिए चमड़े का चाबुक या टूटे हुए बांस वगैरह से उसे ताड़ित किया जा रहा है। उस व्यक्ति की ऐसी दशा क्यों हो रही है ? उस के चारों और स्त्री-पुरुषों का जमघट क्यों लगा हुआ है ? वह जनता के लिए एक घृणोत्पादक घटना-रूप क्यों बना हुआ है ? इस का उत्तर स्पष्ट है, उस ने कोई ऐसा अपराध किया है जिस के फल स्वरूप यह सब कुछ हो रहा है, बिना अपराध के किसी को दण्ड नहीं मिलता और अपराधी को दण्ड भोगे बिना छुटकारा नहीं होता, यह एक प्राकृतिक नियम है। इसी के अनुसार यह उद्घोषणा थी कि इस व्यक्ति को कोई दूसरा दण्ड देने वाला नहीं है किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्ड दे रहें हैं, अर्थात् राज्य की ओर से इस के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह इसी के किए हुए कर्मों का परिणाम है। मनुष्य जो कुछ करता है उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है। देखिए भगवान् महावीर स्वामी ने कितनी सुन्दर बात कही है जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए। एगं तु दुक्खं भवमज्जणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं // 23 // . [श्री सूत्रकृतांग० अध्ययन 5, उद्दे० 2] अर्थात् जिस जीव ने जैसा कर्म किया है, वही उस को दूसरे भव में प्राप्त होता है। जिस ने एकान्त दुःखरूप नरक भव का कर्म बान्धा है वह अनन्त दुःख रूप नरक को भोगता है। उद्घोषणा एक खण्ड पटह के द्वारा की जा रही थी। खण्डपटह फूटे ढोल का नाम है। उस समय घोषणा या मुनादि की यही प्रथा होगी और आज भी प्रायः ऐसी ही प्रथा है कि मुनादि करने वाला प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थानों पर पहले ढोल पीटता है या घंटी बजाता है फिर वह घोषणा करता है। इसी से मिलता जुलता रिवाज उस समय था। - राजमार्ग पर जहां कि चार, पांच रास्ते इकट्ठे होते हैं-यह घोषणा की जा रही है कि हे महानुभावो! उज्झितक कुमार को जो दण्ड दिया जा रहा है इस में कोई राजा अथवा राज-पुत्र कारण नहीं है अर्थात् इस में किसी राज-कर्मचारी आदि का कोई दोष नहीं, किन्तु यह सब इस के अपने ही किए हुए पातकमय कर्मों का अपराध है, दूसरे शब्दों में कहें तो इस को दण्ड देने वाले हम नहीं हैं किन्तु इस के अपने कर्म ही इसे दण्डित कर रहे हैं। . 1. यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत् कर्म तदेवागच्छति सम्पराये। एकान्तदु:खं भवमर्जयित्वा वेदयन्ति दु:खिनस्तमनन्तदुःखम्॥ प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [257
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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