SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में से निकाले हुए मांसखण्डों का उसे खिलाना, तथा साथ में उसे रुधिर का पान कराना, वह भी एक स्थान पर नहीं प्रत्युत अठारह स्थानों पर-इस प्रकार की भीषण एवं मर्मस्पर्शी दशा किए जाने पर भी वह जीवित रहा, उस का वहां पर प्राणान्त नहीं हुआ, यह कैसे ? अर्थात् मानवी प्राणी में इतना बल कहां है कि जो इस प्रकार पर नरकतुल्य दुःखों का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रह सके ? इस आशंका का उत्तर निम्नोक्त है. शारीरिक बल का आधार संहनन (संघयण) होता है। हड्डियों की रचनाविशेष का नाम संहनन है। वह छः प्रकार का होता है, जो कि निम्नोक्त है (1) वज्रऋषभनाराचसंहनन-वज्र का अर्थ कील होता है। ऋषभ वेष्टनपट्ट (पट्टी) को कहते हैं। नाराच शब्द दोनों ओर के मर्कटबन्ध (बन्धनविशेष) के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जोड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी की कील हो उसे वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। यह संहनन सब से अधिक बलवान होता है। (2) ऋषभनाराचसंहनन-जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई दो हड्डियों पर तीसरी पट्ट की आकृति वाली हड्डी का चारों ओर से वेष्टन हो, पर तीनों हड्डियों का भेदन करने वाली वज्र नामक हड्डी की कील न हो उसे ऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। यह पहले की अपेक्षा कम बलवान होता है। / (3) नाराचसंहनन-जिस संहनन में दोनों ओर से मर्कटबन्ध द्वारा जुड़ी हुई हड्डियां हों, पर उन के चारों ओर वेष्टनपट्ट और वज्र नामक कील न हो उसे नाराचसंहनन कहते हैं। यह दूसरे की अपेक्षा कम बलवान होता है। .. (4) अर्धनाराचसंहनन-जिस संहनन में एक ओर तो मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीली हो उसे अर्धनाराचसंहनन कहते हैं / यह तीसरे की अपेक्षा कम बल वाला होता (5) कीलिकासंहनन-जिस संहनन में हड्डियां केवल कील से जुड़ी हुई हों उसे कीलिकासंहनन कहते हैं। यह चौथे की अपेक्षा कम बल वाला होता है। (6) सेवार्तकसंहनन-जिस संहनन में हड्डियां पर्यन्त भाग में एक-दूसरे को स्पर्श करती हुई रहती हैं तथा सदा चिकने पदार्थों के प्रयोग एवं तेलादि की मालिश की अपेक्षा रखती हैं, उसे सेवार्तक संहनन कहते हैं। यह सब से कमजोर संहनन होता है। इस संहनन-वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरगत सबलता एवं निर्बलता संहनन के कारण ही होती है। संहनन यदि सबल होता है तो शरीर भी उसके अनुरूप सबल होता प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / तृतीय अध्याय [431
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy