________________ १-एक सदा कालभावी अर्थात् अनादि अनन्त, जैसे कि आत्मा और उपयोग का अभेद, द्रव्य और गुण का अभेद, सम्यक्त्व और ज्ञान का अभेद। इसे नैत्यिक सम्बन्ध भी कह सकते हैं। २-दूसरा अभेद औपचारिक होता है, यह अभेद अनादि सान्त और सादि सान्त यों दो प्रकार का होता है। आत्मा के साथ अज्ञानता, वासना, मिथ्यात्व और कर्मों का सम्बन्ध अनादि है। इन का विनाश भी किया जा सकता है, इसलिए इस अभेद को अनादि सान्त भी कहते हैं। दूध दधि और मक्खन तीनों में घृत अभेद से रहा हुआ है, इस संबन्ध को सादि सान्त अभेद भी कह सकते हैं। हमारा प्रकृत साध्य अनादि सान्त अभेद है। कर्मों का कर्ता कर्म है या जीव?-इस के आगे अब प्रश्न पैदा होता है कि क्या कर्मों का कर्ता कर्म ही है ? या जीव है ? इस जटिल प्रश्न का उत्तर भी नयों के द्वारा ही जिज्ञासुजन समझने का प्रयत्न करें। जैसे हिसाब के प्रश्नों को हल करने के लिए तरीके होते हैं जिन्हें गुर भी कहते हैं। एवमेव आध्यात्मिक प्रश्नों को हल करने के जो तरीके हैं उन्हें नय कहते हैं या स्याद्वाद भी कहते हैं। एकान्त निश्चय नय से अथवा एकान्त व्यवहार नय से जाना हुआ वस्तुतत्त्व सब कुछ असम्यक् तथा मिथ्या है, और अनेकान्त दृष्टि से जाना हुआ तथा देखा हुआ सब कुछ सम्यक् है। अत: ये पूर्वोक्त दोनों नय जैन-दर्शन के नेत्र हैं, यदि ऐसा कहा जाए तो अनुचित न होगा। अरूपी रूपी के बन्धन में कैसे पड़ सकता है-प्रश्न-आत्मा अरूपी (अमूर्त) है और कर्म रूपी है। अरूपी आत्मा रूपी कर्म के बन्धन में कैसे पड़ सकता है ?, उत्तर-यह प्रश्न बड़े-बड़े विचारकों के मस्तिष्क में चिरकाल से घूम रहा है। अन्य दर्शनकार इस उलझी हुई गुत्थी को सुलझाने में अभी तक असमर्थ रहे, किन्तु जैनदर्शनकार जिनभद्र गणी क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य की 1636 वीं गाथा तथा बृहद्वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द सूरि जी लिखते हैं-अहवा पच्चक्खं चिय जीवोवनिबंधणं जह सरीरं, चिट्ठइ कम्मयमेव भवन्तरे जीवसंजुत्तं। अथवा-यथेदं बाह्य स्थूलशरीरं जीवोपनिबंधनं जीवेन सह सम्बद्धं प्रत्यक्षोपलभ्यमानमेव तिष्ठति सर्वत्र चेष्टते एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह संयुक्तं कार्मणशरीरं प्रतिपद्यस्व। अर्थात् जैसे-प्रत्यक्ष दृश्यमान स्थूल शरीर में आत्मा ठहरी हुई है एवं आत्मा कर्मशरीर में अनादिकाल से बद्ध है, अबद्ध से बद्ध नहीं, और मुक्त से भी बद्ध नहीं, अर्थात् अनादि से है। जैनागम तो किसी भी संसारी जीव को कथंचित् रूपी मानता है। एकान्त अरूपी जीव तो मुक्तात्मा ही है क्योंकि वे कार्मण शरीर तथा तैजस शरीर से भी विमुक्त हैं / वैदिक दर्शनकार भी तीन प्रकार के शरीर प्रतिपादन करते हैं, जैसे कि-स्थूलशरीर, कारणशरीर तथा सूक्ष्मशरीर / 1. सरूवी चेव अरूवी चेव। ठा० 2, उ० पहला। 22 ] श्री विपाक सूत्रम् [कर्ममीमांसा