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________________ से -पिप्पलेहि य कुहाडेहि य-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन सब का अर्थ पीछे इसी अध्याय में दिया जा चुका है। -एयकम्मे ४-यहां दिए गए 4 के अंक से विवक्षित पाठ का वर्णन द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। ___ प्रस्तुत कथासन्दर्भ के परिशीलन से जहां "-दुर्योधन चारकपाल निर्दयता की जीती जागती मूर्ति था, उसका मानस अपराधियों को भीषण दण्ड देने पर भी सन्तुष्ट नहीं हो पाता था, अतएव वह अत्यधिक क्रूरता लिए हुए था-" इस बात का पता चलता है, वहां यह आशंका भी उत्पन्न हो जाती है कि दुर्योधन चारकपाल से निर्दयतापूर्ण दण्डित हुए लोग उस दण्ड को सहन कैसे कर लेते थे ? मानवी प्राणी में इतना बल कहां है जो इस प्रकार के नरकतुल्य दुःख भोगने पर भी जीवित रह सके ? उत्तर-अपराधियों के जीवित रहने या मर जाने के सम्बन्ध में सूत्रकार तो कुछ नहीं .. बतलाते, जिस पर कुछ दृढ़ता से कहा जा सके। तथापि ऐसी दण्ड-योजना में अपराधी का मर जाना कोई असंभव नहीं कहा जा सकता और यह भी नहीं कहा जा सकता कि अपराधी अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त कर लेते थे, क्योंकि दृढ़ संहनन वालों का ऐसे भीषण दण्ड का उपभोग कर लेने पर भी जीवित रहना संभव है। कैसे संभव है, इस के सम्बन्ध में तृतीय अध्याय में विचार किया गया है। पाठक वहां देख सकते हैं। इतना ध्यान रहे कि वहां अभग्नसेन से सम्बन्ध रखने वाला वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में अपराधियों से सम्बन्ध रखने वाला। अब सूत्रकार दुर्योधन के भावी जीवन का निम्नलिखित सूत्र में उल्लेख करते हैं मूल-से णं ततो अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव महुराए णयरीए सिरिदामस्स रण्णो बंधुसिरीए देवीए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने। तते णं बंधुसिरी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तते णं तस्स दारगस्स अम्मापितरो णिव्वत्ते बारसाहे इमं एयारूवं णामधेजं करेंति, होउ णं अम्हं दारगे णंदिसेणे नामेणं। तते णं से णंदिसेणे कुमारे पंचधातीपरिग्गहिते जाव परिवड्ढति। तते णं से णंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे जाव विहरति जाव जुवराया जाते यावि होत्था। तते णं से णंदिसेणे कुमारे रज्जे य जाव अंतेउरे य मुच्छिते 4 इच्छति सिरिदामं रायं जीविताओ ववरोवित्ता सयमेव रज्जसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए। तते णं से णंदिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रण्णो बहूणि अन्तराणि य छिद्दाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे विहरति। 536 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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