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________________ और जन्मांधरूप भी है। ___ "समणे जाव विहरति" इस पाठ के अन्तर्गत "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के दशवें सूत्र की ओर संकेत किया गया है, उसमें वीर भगवान् के समुचित सद्गुणों का बड़े मार्मिक शब्दों में वर्णन किया गया है। "तते णं एए जाव निग्गच्छंति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के २७वें सूत्र का ग्रहण अभीष्ट है। तथा "भगवं जाव पज्जुवासामो" में आए हुए "जावयावत्" पद से औपपातिक के दशवें सूत्र का ग्रहण करना, तथा "नमंसित्ता जाव पज्जुवासति" पाठ के "जाव-यावत्" पद से औपपातिक सूत्र के 32 वें सूत्र के अंतिम अंश का ग्रहण सूचित किया गया है। इसी प्रकार से "परिसा जाव-पडिगया" पाठ में उल्लिखित "जावयावत्" पद औपपातिक के 35 वें सूत्र का परिचायक है। तथा विजय नरेश के प्रस्थान में जो कूणिक नृप का उदाहरण दिया है उस का वर्णन औपपातिक के 36 वें सूत्र में है। इसके अतिरिक्त 'इदंभूती णामं अणगारे जाव विहरति' पाठ में आए हुए "जाव-यावत्" पद से गौतम स्वामी के साधु जीवन का वर्णन करने वाले प्रकरण का निर्देश है, उसका उल्लेख जम्बूस्वामी के वर्णन-प्रसंग में कर दिया गया है। ___ जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वीर प्रभु की धर्म देशना को सुन कर परिषद् वापिस अपने-अपने स्थान में लौट गई, परन्तु वह जन्मांध वृद्ध व्यक्ति अभी तक अपने स्थान से नहीं उठा। ऐसा मालूम होता है कि भगवान् के द्वारा वर्णन किए गए कर्म जन्य सुखों एवं दुःखों के विपाक पर विचार करते हुए निज की दयनीय दशा का ख्याल करके अपने पूर्वकृत दुष्कर्मों के भार से भारी हुई अपनी आत्मा को धिक्कार रहा हो। उस समय चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता इन्द्रभूति नामा अनगार ने उसे देखा और देखते ही वे बड़े विस्मय को प्राप्त हुए। उनको उस वृद्ध व्यक्ति पर बड़ी करुणा आई, जिस के फलस्वरूप उन्होंने भगवान् से प्रश्न किया। "जायसड्ढे-जातश्रद्ध" यह पद सूचित करता है कि उस जन्मांध पुरुष के विषय में गौतमस्वामी ने जो भगवान से प्रश्न किया है उस में उस व्यक्ति की वर्तमान दयाजनक अवस्था की ही बलवती प्रेरणा है। वस्तुतः महापुरुषों में यही विशेषता होती है कि वे दूसरों के जीवन में उपस्थित होने वाले दुःखों को देखकर उनके मूल कारण को ढूंढते हैं तथा स्वंय अधिक रूप में द्रवित होते हैं, अर्थात उन का हृदय करुणा से एकदम भर जाता है। "जायसड्ढे जाव एवं" इस पाठ में दिए गए "जाव-यावत्" पद से भगवती सूत्र है, उसमें देखने की शक्ति नहीं होती, जब कि जन्मांधरूप के नेत्रों का आकार भी नहीं बनने पाता, इसलिए यह अत्यधिक कुरूप एवं वीभत्स होता है। 132 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [.प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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