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________________ पर्याप्त रूप में मिलता, और वे भय तथा उपसर्ग आदि से रहित हो कर घूमते। . टीका-श्री गौतम अनगार के पूछने पर वीर प्रभु बोले, गौतम ! उस व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त इस प्रकार है इस अवसर्पिणी काल का चौथा आरा बीत रहा है जब कि इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष नामक भूप्रदेश में हस्तिनापुर नाम का एक नगर था जो कि पूर्णतया समृद्ध था, अर्थात् उस नगर में बड़े-बड़े गगनचुम्बी विशाल भवन थे, धन धान्यादि से सम्पन्न नागरिक लोग वहां निर्भय हो कर रहते थे, चोरी आदि का तथा अन्य प्रकार के आक्रमण का वहां सन्देह नहीं था। तात्पर्य यह है कि वह नगरोचित गुणों से युक्त और पूर्णतया सुरक्षित था। उस नगर में महाराज सुनन्द राज्य किया करते थे। ___"-रिद्ध-" यहां दिए गए बिन्दु से "-रिद्धस्थिमियसमिद्धे, पमुइयजणजाणवए, आइण्ण-जणमणुस्से-" से लेकर -उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे, पासाइए, दरिसणिजे, अभिरूवे, पडिरूवे- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों में प्रथम के -१रिद्धस्थिमियसमिद्धे-पद की व्याख्या पीछे की जा चुकी है। शेष पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र में वर्णित चम्पानगरी के वर्णक प्रकरण में देखी जा सकती है। __"-महयाहि.-" यहां के बिन्दु से -महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे, अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंससुप्पसूए णिरंतरं-से लेकर:-मारिभयविप्पमुक्कं, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिम्बडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरति-यहां तक के पाठ को ग्रहण करने की सूचना सूत्रकार ने दी है। इन पदों की व्याख्या औपपातिक सूत्र के छठे सूत्र में देखी जा सकती है। प्रस्तुत प्रकरण में जो सूत्रकार ने-२महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे-इस सांकेतिक पद का आश्रयण किया है, उस की व्याख्या निम्नोक्त है महाराज सुनन्द महाहिमवान् (हिमालय) पर्वत के समान महान् थे और मलय (पर्वतविशेष), मंदर-मेरुपर्वत, महेन्द्र (पर्वतविशेष अथवा इन्द्र) के समान प्रधानता को लिए हुए थे। उसी हस्तिनापुर के लगभग मध्य प्रदेश में एक गोमंडप था, जिस में सैंकड़ों खंभे लगे हुए थे और वह देखने योग्य था। ___ उस में नगर के अनेक चतुष्पाद पशु रहते थे, उन को घास और पानी आदि वहां पर्याप्त रूप में मिलता था, वे निर्भय थे उनको वहां किसी प्रकार के भय या उपद्रव की आशंका नहीं 1. ऋद्धं-भवनादिभिर्वृद्धिमुपगतम्, स्तिमितम्-भयवर्जितम्, समृद्धम् - धनादियुक्तमिति वृत्तिकारः। 2. महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत् सारः प्रधानो यः स तथेति वृत्तिकारः। . / 266 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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