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________________ आज मैं दान दूंगा, आज मुझे बड़े सद्भाग्य से दान देने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। २-दान देते समय हर्षित होता है, और ३-दान देने के पश्चात् सन्तोष और आनन्द का अनुभव करता है। साधु ने इतना आहार लिया, जिस के मन में ऐसे भाव आते हैं, उसने दान का महत्त्व ही नहीं समझा, ऐसा समझना चाहिए। देय पदार्थ शुद्ध हो, उस में किसी प्रकार की त्रुटि न हो, दाता भी शुद्ध अर्थात् निर्मल भावना से युक्त हो और दान लेने वाला भी परम तपस्वी एवं जितेन्द्रिय अनगार हो। दूसरे शब्दों में-देय वस्तु, दाता और प्रतिग्रहीता-पात्र ये तीनों ही शुद्ध हों तो वह दान जन्म-मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को संक्षिप्त करने-कम करने वाला होता है-ऐसा कहा जा सकता है। सुमुख गृहपति के यहां ये तीनों ही शुद्ध थे। इसलिए उसने अलभ्य लाभ को संप्राप्त किया। ___ वैदिकसम्प्रदाय में गंगा, यमुना और सरस्वती इन को पुण्यतीर्थ माना गया है। इन तीनों के संगम को पुण्य त्रिवेणी कहा है। इसी को दूसरे शब्दों में तीर्थराज कहा जाता है और उसे पुण्य का उत्पादक माना गया है। किन्तु जैनपरम्परा में शुद्ध दाता, शुद्ध देय वस्तु और शुद्ध पात्र ये तीन तीर्थ माने गए हैं। इन तीनों के सम्मेलन से तीर्थराज बनता है। इस तीर्थराज की यात्रा करने वाला अपने जीवन का विकास करता हुआ दुर्गतियों में उपलब्ध होने वाले नानाविध दुःखों से छूट जाता है / इस के अतिरिक्त वह मनुष्यों तथा देवों का भी पूज्य बन जाता है। देवता लोग भी उस के चरणों के.स्पर्श से अपने को कृतकृत्य समझते हैं। सुमुख गृहपति ने इसी पुण्य त्रिवेणी में स्नान करके फलस्वरूप संसार को कम कर दिया और आगामी भव के लिए मनुष्य की आयु का बन्ध किया। इस के अतिरिक्त उस के घर में जो मोहरों की वृष्टि, पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, वस्त्रों की वर्षा, दुन्दुभि का बजना तथा "अहोदान अहोदान" की घोषणा होना-ये पांच दिव्य प्रकट हुए, यह विधिपुरस्सर किए गए सुपात्रदानरूप तीर्थ में स्नान करने का ही प्रत्यक्ष फल है। जैसा कि प्रथम भी कहा गया है कि प्रत्येक कर्त्तव्य के पीछे करने वाले की जो अपनी भावना होती है, उसी के अनुसार कर्त्तव्य-कर्म के फल का निर्धारण होता है। मानव की भावना जितनी शुद्ध और बलवती होगी, उतना ही उस का फल भी विशुद्ध और बलवान् होगा। यह बात ऊपर के कथासन्दर्भ से स्पष्ट हो जाती है। जीवन के आन्तरिक विकास में देय वस्तु के परिमाण का कोई मूल्य नहीं होता अपितु भावना का मूल्य है। देय वस्तु समान होने पर भी भावना की तरतमता से उसके फल में विभेद हो जाता है। मानव जीवन के विकासक्षेत्र में भावना को जितना महत्त्व प्राप्त है उतना और किसी वस्तु को नहीं। भावना के प्रभाव से ही मरुदेवी माता, भरत चक्रवर्ती, प्रसन्नचन्द्र राजर्षि और कपिलमुनि प्रभृति आत्माओं ने केवलज्ञान द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [889
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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