________________ प्राप्त कर निर्वाणपद को प्राप्त कर लिया था। तात्पर्य यह है कि मानव जीवन का उत्थान और पतन भावना पर ही अवलम्बित है। "यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी"-इस अभियुक्तोक्ति में अणुमात्र भी विसंवाद दिखाई नहीं देता अर्थात् इस की सत्यता निर्बाध है। प्रश्न-सुदत्त मुनि ने महीने की तपस्या का पारणा किया, आहार देने वाले सुमुख के घर सुवर्ण की दृष्टि हुई, यह ठीक है परन्तु आजकल दो-दो महीनों की तपस्या होती है और पारणा भी होता है मगर कहीं पर भी इस तरह से स्वर्ण की वृष्टि देखी वा सुनी नहीं जाती, ऐसा क्यों? उत्तर-सब से प्रथम ऐसा प्रश्न करने वालों या सोचने वालों को यह जान लेना चाहिए कि सुवर्णवृष्टि की लालसा ही उस वृष्टि में एक बड़ा भारी प्रतिबन्ध है, रुकावट है। जो लोग तपस्वी मुनि को आहार देकर मोहरों की वर्षा की अभिलाषा करते हैं, वे थोड़ा देकर बहुत की इच्छा करते हैं / यह तो स्पष्ट ही एक प्रकार की सौदेबाज़ी है जिस की पारमार्थिक जगत् / में कुछ भी कीमत नहीं। देव किसी व्यापारी या सौदेबाज़ के आंगन में मोहरों की वर्षा नहीं करते। मोहरों की वर्षा तो दाता के घर में हुआ करती है। सच्चा दाता दान के बदले में कुछ भी पाने की अभिलाषा नहीं करता, वह तो देने के लिए ही देता है, लेने के लिए नहीं। ऐसा दाता तो कोई विरला ही होता है और वसुधारा का वर्षण भी उसी के घर होता है। . इसके अतिरिक्त अगर कोई पुरुष भूख से पीड़ित हो रहा है तो उस की भूख मिटाने के लिए उसे कुछ खाने को देना, उस की अपेक्षा वह अपने लिए अधिक लाभकारी होता है। तात्पर्य यह है कि दान लेने वाले की अपेक्षा दान देने वाला अधिक लाभ उठाता है, इत्यादि बातों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत में वर्णित सुमुख गृहपति के जीवन से अनायास ही हो जाता है। ___ प्रश्न-जिस समय सुमुख गृहपति ने सुदत्त मुनि के पात्र में आहार डाला तो उस समय देवताओं ने वसुधारा आदि की वृष्टि की और आकाश से अहोदान अहोदान की घोषणा की, इस में क्या हार्द है ? उत्तर-इस के द्वारा देवता यह सूचित करते हैं कि हे मनुष्यो! तुम बड़े भाग्यशाली हो, तुम को ही इस दान की योग्यता प्राप्त हुई है। हमारा ऐसा सद्भाग्य नहीं कि किसी सुपात्र को दान दे सकें। सब कुछ होते हुए भी हम कुछ नहीं कर सकते। तुम को ऐसा सुअवसर अनेक बार प्राप्त होता है, इसलिए तुम धन्य हो तथा तुम्हें योग्य है कि उस को हाथ से न जाने दो। सारांश यह है कि देवता लोग इस सुवर्णवृष्टि द्वारा शुद्ध हृदय से किए गए सुपात्रदान की भूरिभूरि प्रशंसा कर रहे हैं। प्रश्न-जिस समय श्री सुमुख गृहपति ने सुदत्तमुनि को दान दिया था वह समय 890 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध