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________________ होता और ना ही वह रोगमुक्त हो सकता है, इसी प्रकार धर्म के केवल सुन लेने से किसी को लाभ प्राप्त नहीं हो सकता जब तक सुने हुए धर्मोपदेश को जीवन में उतारने अर्थात् आचरण में लाने का यत्न न किया जाए। जिस तरह रोग की निवृत्ति औषधि के निरन्तर सेवन से होती है, उसी प्रकार भवरोग की निवृत्ति के लिए धर्म-औषध का सेवन करना आवश्यक है न कि केवल श्रवण कर लेना। इसलिए जो व्यक्ति गुरुजनों से सुने हुए सदुपदेश को उनके कथन के अनुसार आचरण में लाता है वही सच्चा श्रोता अथवा जिज्ञासु हो सकता है। सुबाहुकुमार ने भगवान् की धर्मदेशना को केवल सुन लेने तक ही सीमित नहीं रक्खा किन्तु उस को आचरण में लाने का भी स्तुत्य प्रयास किया। २-दिये गए उपदेश का ग्रहण अर्थात् आचरण में लाना श्रोता की रुचि, शक्ति और विचार पर निर्भर करता है। सभी श्रोता एक जैसी रुचि, शक्ति और विचार के नहीं होते। बहुतों की श्रवण करने से धर्म में अभिरुचि तो हो जाती है, परन्तु वे उस के यथाविधि पालन में असमर्थ होते हैं। इसी प्रकार बहुतों में शक्ति तो होती है परन्तु अभिरुचि-श्रद्धा का अभाव होता है और कई एक में रुचि और शक्ति के होने पर भी विचार-विभेद होता है, जिस के कारण वे धर्मानुष्ठान से वंचित रहते हैं। इसी दृष्टि को सन्मुख रखते हुए शास्त्रकारों ने अधिकारिवर्ग की रुचि और शक्ति के अनुसार धर्म को भी तरतमभाव से अनेक स्वरूपों में विभाजित कर दिया है। ___ जैन परम्परा में सामान्यतया धर्म को दो स्वरूपों में विभाजित किया है। प्रथम साधुधर्म है तथा दूसरा गृहस्थधर्म। इन्हीं दोनों को जैनपरिभाषा में सर्वविरतिधर्म और देशविरतिधर्म कहते हैं। सर्वविरतिधर्म-मुनिधर्म सर्वश्रेष्ठ है परन्तु सभी की इस के ग्रहण में रुचि नहीं हो सकती, तथा रुचि होने पर भी उसके सम्यक् अनुष्ठान की शक्ति नहीं होती। तब क्या गृहस्थ धर्म से वंचित ही रह जाए ? नहीं, यह बात नहीं है, क्योंकि उस के लिए देशविरतिधर्म का विधान है अर्थात् वह देशविरतिधर्म को अंगीकार करता हुआ आत्मा को विकासमार्ग में प्रतिष्ठित कर सकता है। तात्पर्य यह है कि यथारुचि और यथाशक्ति धर्म का आराधन करने वाला व्यक्ति भी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। सुबाहुकुमार की भगवदुपदिष्ट अनगारधर्म पर पूरी-पूरी आस्था है, उस पर विश्वास होने के साथ-साथ वह उसे सर्वश्रेष्ठ भी मानता है परन्तु उसके यथाविधि अनुष्ठान में वह अपने को असमर्थ पाता है, इसलिए उस ने अपने आप को श्रावकधर्म में दीक्षित होने की भगवान् से प्रार्थना की और भगवान् ने उसे स्वीकार करते हुए उसे श्रावकधर्म में दीक्षित किया। सारांश. यह है कि व्रतग्रहण करने से पूर्व अपनी शक्ति का ध्यान अवश्य रख लेना चाहिए। यदि किसी 816 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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