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________________ तरतमभाव से अणु और महान् संज्ञा है। इन का आंशिकरूप में पालन करने वाला व्यक्ति अणुव्रती कहलाता है और सर्व प्रकार से पालन करने वाले की महाव्रती संज्ञा है। महाव्रती अनगार होता है जब कि गृहस्थ को अणुव्रती कहते हैं। परन्तु जब तक कोई साधक इन के पालन करने का यथाविधि नियम, ग्रहण नहीं करता तब तक वह न तो महाव्रती और न ही अणुव्रती कहा सकता है। ऐसी अवस्था में वह अव्रती कहलाएगा। अतः आत्मश्रेय के अभिलाषी मानव प्राणी को यथाशक्ति धर्म के आराधन में उद्योग करना चाहिए। यदि वह सर्वविरतिधर्म-साधुधर्म के पालन में असमर्थ है तो उसे देशविरतिधर्म-श्रावकधर्म के अनुष्ठान या आराधन में यत्न करना चाहिए। जन्ममरण की परम्परा से छुटकारा प्राप्त करने के लिए धर्म के आलम्बन के सिवा और कोई उपाय नहीं है.......। 'इत्यादि वीर प्रभु की पवित्र सुधामयी देशना को अपने-अपने कर्णपुटों द्वारा पान कर के संतृप्त हुई जनता प्रभु को यथाविधि वन्दना तथा नमस्कार करके अपने-अपने स्थान को वापस चली गई और महाराज अदीनशत्रु तथा महारानी धारिणी देवी भी अपने अनुचरसमुदाय के साथ प्रभु को सविधि वन्दना-नमस्कार कर के अपने महल की ओर प्रस्थित हुए। __भगवान् की देशना का सुबाहुकुमार के हृदय पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह उन के सन्मुख उपस्थित हो कर बड़ी नम्रता से बोला कि भगवन् ! अनेक राजा-महाराजा और धनाढ्य आदि अनेकानेक पुरुष सांसारिक वैभव को त्याग कर आप श्री की शरण में आकर सर्वविरतिरूप संयम का ग्रहण करते हैं, परन्तु मुझ में उस के पालन की शक्ति नहीं है, इसलिए मुझे तो गृहस्थोचित देशविरतिधर्म के पालन का ही नियम कराने की कृपा करें ? सुबाहुकुमार के इस कथन के उत्तर में भगवान् ने कहा कि जिस में तुम्हारी आत्मा को सुख हो, वह करो, परन्तु धर्मकार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिए। तदनन्तर सुबाहुकुमार ने भगवान् के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों के पालन का नियम करते हुए देशविरति धर्म को अंगीकार किया, और वह भगवान् को यथाविधि वन्दना-नमस्कार करके अपने रथ पर सवार हो कर अपने स्थान को वापिस चला गया। प्रस्तुत सूत्र में जो कुछ लिखा है, उस का यह सारांश है। इस पर से विचारशील व्यक्ति को अनेकों उपयोगी शिक्षाओं का लाभ हो सकता है। उन में कुछ निम्नोक्त हैं १-धर्म केवल सुनने की वस्तु नहीं किन्तु आचरण में लाने योग्य पदार्थ है। जैसे औषधि का बार-बार नाम लेने या पास में रख छोड़ने से रोगी पर उस का कोई प्रभाव नहीं 1. धर्मदेशना का विस्तृत वर्णन श्री औपपातिक सूत्र में किया गया है। अधिक के जिज्ञासु पाठक वहां देख सकते हैं। द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [815
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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