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________________ त्याग दिया और पाँच अभिगमों के साथ वे भगवान् के चरणों में उपस्थित होने के लिए पैदल चल पड़े। भगवान् के चरणों में उपस्थित होकर यथाविधि वन्दना, नमस्कार करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ गए। महाराज अदीनशत्रु के यथास्थान पर बैठ जाने के अनन्तर महारानी और उनकी अन्य दासियां भी प्रभु को वन्दना नमस्कार कर के यथास्थान बैठ गईं। प्रभु महावीर स्वामी के समवसरण में उन के पावन दर्शन तथा उपदेश श्रवणार्थ आई हुई देवपरिषद्, ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, और मनुजपरिषद् आदि के अपने-अपने स्थान पर अवस्थित हो जाने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मदेशना आरम्भ की। भगवान् बोले यह जीवात्मा कर्मों के बन्धन में दो कारणों से आता है। वे दोनों राग और द्वेष के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये राग और द्वेष इस आत्मा को घटीयंत्र की तरह संसार में घुमाते रहते हैं और विविध प्रकार के दु:खों का भाजन बनाते हैं। जब तक संसारभ्रमण के हेतुभूत इस राग-द्वेष को साधक आत्मा अपने से पृथक् करने का यत्न नहीं करता, तब तक उस की सारी शक्तियां तिरोहित रहती हैं, उस का आत्मविकास रुका रहता है। आत्मा की प्रगति में प्रतिबन्धरूप इस राग और द्वेष का जब तक समूलघात नहीं होने पाता तब तक इस आत्मा को सच्ची शान्ति का लाभ नहीं हो सकता। इस के लिए साधक पुरुष को संयम की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। संयमशील आत्मा ही राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करके आत्मशक्तियों के विकास द्वारा शान्तिलाभ कर सकता है। मानवजीवन का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना है। उसके लिए मानव को त्यागमार्ग का अनुसरण करना होगा। त्यांग के दो स्वरूप हैं, देशत्याग और सर्वत्याग। सर्वत्याग का ही दूसरा नाम सर्वविरतिधर्म या अनगारधर्म है। इसी प्रकार देशविरति और सरागधर्म को देशत्याग के नाम से कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो देशविरतिधर्म गृहस्थधर्म है और सर्वविरतिधर्म मुनिधर्म कहलाता है। जब तक साधक-आत्मा सर्व प्रकार के सावध व्यापार का परित्याग करके संयममार्ग का अनुसरण नहीं करता, तब तक उसे सच्ची शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। यह ठीक है कि सभी साधक एक जैसे पुरुषार्थी नहीं हो सकते, अत: संयममार्ग में प्रवेश करने के लिए द्वाररूपं द्वादशविध गृहस्थधर्म जिस का दूसरा नाम देशविरतिधर्म है, प्रविष्ट हो कर मोक्षमार्ग के पथिक होने का प्रयत्न करना भी उत्तम है। देशत्याग सर्वत्याग के लिए आरम्भिक निस्सरणी है। पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत इस तरह बारह व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करने वाला साधक भी विकास-मार्ग की ओर ही प्रस्थान करने वाला हो सकता है। १-अहिंसा, २-सत्य, ३-अस्तेय, ४-ब्रह्मचर्य और ५-अपरिग्रह इन पांच व्रतों की 1. अभिगमों का स्वरूप प्रथम श्रुतस्कंध के प्रथमाध्याय में लिखा जा चुका है। 814 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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