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________________ कुपित होकर त्वचा, रुधिर, मांस और शरीरस्थ जल को दूषित कर के कुष्ठ रोग को उत्पन्न करते हैं। तात्पर्य यह है कि वात, पित, कफ, रस, रुधिर, मांस तथा लसीका इन सातों के दूषित होने अर्थात् बिगड़ने से कुष्ठ रोग उत्पन्न होता है। इन में पहले के तीन-वात, पित्त और कफ तो दोष के नाम से प्रसिद्ध हैं और बाकी के चारों रस, रुधिर, मांस और लसीका-की दूष्य संज्ञा है। इस प्रकार संक्षेप से ऊपर वर्णन किए गए 16 रोगों ने एकादि नाम के राष्ट्रकूट पर एक बार ही आक्रमण कर दिया अर्थात् ये 16 रोग एक साथ ही उसके शरीर में प्रादुर्भूत हो गए। वास्तव में देखा जाए तो अत्युग्र पापों का ऐसा ही परिणाम हो सकता है। अस्तु। अब पाठक एकादि राष्ट्रकूट की अग्रिम जीवनी का वर्णन सुनें जो कि सूत्रकार के शब्दों में इस तरह वर्णित है मूल-तते णं से एक्काई रट्ठकूडे सोलसहि रोगातंकेहिं अभिभूते समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति 2 त्ता एवं वयासी- गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा 2 एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! एक्काइ सरीरगंसि सोलस रोगातंका पाउब्भूता तंजहा-सासे 1 कासे 2 जरे 3 जाव कोढ़े 16 ।तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया! वेजो वा वेज्जपुत्तो वा जाणओ वा जाणयपुत्तो वा तेइच्छिओ वा तेइच्छिय-पुत्तो वा एगातिस्स रहकूडस्स तेसिं सोलसण्हं रोगातंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तते, तस्स णं एक्काई रहकूडे विपुलं अत्थसंपयाणं दलयति, दोच्चं पि तच्चं पि उग्घोसेह 2 त्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणेह। तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति। तते णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे वेजा य 6 सत्थकोसहत्थगया सएहिं सएहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति 2 त्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मझमझेणं जेणेव एगाइ-रट्ठकूडस्स गेहे तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता एगाइ-सरीरयं परामुसंति 2 त्ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छंति 2 त्ता एक्काइ-रट्ठकूडस्स बहुहिं अब्भंगेहि य उव्वट्टवणाहि य सिणेहपाणेहि य (1) चर्म (2) किटिम (3) वैपादिक (4) अलसक (5) दद्रु-मंडल (6) चर्मदल (7) पामा (8) कच्छु (9) विस्फोटक (10) शतारु (11) विचर्चिक, ये ग्यारह क्षुद्रकुष्ठ के नाम से विख्यात हैं। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण, और चिकित्सा सम्बन्धी सम्पूर्ण वर्णन चरक, सुश्रुत और वागभट्ट से लेकर बंगसेन तक के समस्त आयुर्वेदीय ग्रन्थों में पर्याप्त हैं अत: वहीं से देखा जा सकता है। 172 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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