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________________ रहता है। पंजाब प्रांत में उसे लेवा कहते हैं। स्तन-जिस उपांग के द्वारा बच्चों को दूध पिलाया जाता है, उस उपांग विशेष की स्तन संज्ञा है। वृषण-अण्ड-कोष का नाम है। पुच्छ-या पूंछ प्रसिद्ध ही है। ककुद-बैल के कन्धे के कुब्बड को ककुद कहते हैं, तथा बैल के कन्धे का नाम वह है। कम्बल-गाय के गले में लटके हुए चमड़े की कम्बल संज्ञा है इसी का दूसरा नाम सास्ना है। शूल पर पकाया हुआ मांस शूल्य तथा तेल घृत आदि में तले हुए को तलित, भुने हुए को भृष्ट, अपने आप सूखे हुए को परिशुष्क और लवणादि से संस्कृत को लावणिक कहते सुरा-मदिरा, शराब का नाम है। मधु-शहद और पुष्पों से निर्मित मदिरा विशेष का नाम है। मेरक-तालफल से निष्पन्न मदिरा विशेष को मेरक कहते हैं। जाति-मालती पुष्प के वर्ण के समान वर्ण वाले मद्यविशेष की संज्ञा है। सीधु-गुड़ और धातकी के पुष्पों (धव के फूलों) से निष्पन्न हुई मदिरा सीधु के नाम से प्रसिद्ध है। प्रसन्ना-द्राक्षा आदि द्रव्यों के संयोग से निष्पन्न की जाने वाली मदिरा प्रसन्ना कहलाती है। सारांश यह है कि-सुरा, मधु, मेरक, जाति, सीधु, और प्रसन्ना ये सब मदिरा के ही अवान्तर भेद हैं। यद्यपि मेरक आदि शब्दों के और भी बहुत से अर्थ उपलब्ध होते हैं, परन्तु यहां पर प्रकरण के अनुसार इन का मद्यविशेष अर्थ ग्राह्य है। अतः उसी का निर्देश किया गया है। __"आसाएमाणीओ" आदि पदों की व्याख्या टीकाकार इस तरह करते हैं __"आसाएमाणीउ' त्ति ईषत् स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इक्षुखंडादेरिव / "विसाएमाणीउ"त्ति विशेषेण स्वादयन्त्योऽल्पमेव त्यजन्त्यः खर्जुरादेरिव / "परिभाएमाणीउ" त्ति ददत्यः। "परिभुंजेमाणीउ"त्ति सर्वमुपभुंजाना अल्पमप्यपरित्यजन्त्यः" अर्थात् इक्षुखण्ड (गन्ना) की भांति थोड़ा सा आस्वादन तथा बहुत सा भाग त्यागती हुईं, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार इक्षुखण्ड-गन्ने को चूस कर रस का आस्वाद लेकर शेष-[रस की अपेक्षा अधिक भाग] को फेंक दिया जाता है ठीक उसी प्रकार पूर्वोक्त पदार्थों को [जिन का अल्पांश ग्राह्य और बहु-अंश त्याज्य होता है] सेवन करती हुईं, तथा खजूर-खजूर की भांति विशेष भाग का आस्वादन और अल्पभाग को छोड़ती हुईं, तथा मात्र स्वयं ही आस्वादन न कर दूसरों को भी वितीर्ण करती- बांटती हुईं और सम्पूर्ण का ही आस्वादन करती हुईं दोहद को पूर्ण कर रही हैं। प्रस्तुत सूत्र में उत्पला के दोहद का वर्णन किया गया है, उत्पला चाहती है कि मैं भी पुण्यशालिनी माताओं की तरह अपने दोहद को पूर्ण करूं, किन्तु ऐसा न होने से वह चिन्ताग्रस्त 274 ] श्री विपाक सूत्रम् / द्वितीय अध्याय . [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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