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________________ स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं "हडाहडं"त्ति अत्यर्थं शीर्ष शिरो यस्य स तथाइस प्रकार है। अर्थात् केशसंचय (बालों की व्यवस्था) के स्फुटित-भंग हो जाने से जिस के केश बहुत ज्यादा बिखरे हुए हैं, उस को स्फुटितात्यर्थशीर्ष कहते हैं। हडाहड-यह देश्यदेशविशेष में बोला जाने वाला पद है, जो कि अत्यर्थ का बोधक है। श्रद्धेय पं० मुनि श्री घासीलाल जी म० के शब्दों में इस पद की व्याख्या-स्फुटद् हडाहड-शीर्षः शिरोवेदनया व्यथितमस्तकः-इस प्रकार है। अर्थात् भयंकर शिर की पीड़ा से जिस का मस्तक मानों फूटा जा रहा था वह। २४-१दंडिखण्डवसन-जिस के वस्त्र थिगली वाले हैं। थिगली का अर्थ है वह टुकड़ा जो किसी फटे हुए कपड़े आदि का छेद बन्द करने के लिए लगाया जाए, पैबन्द। पंजाबी भाषा में जिसे टांकी कहते हैं / अर्थात् उस पुरुष ने ऐसे वस्त्र पहन रखे थे जिन पर बहुत टांकियां लगी हुई थीं। अथवा-दण्डी-कंथा (गुदड़ी को धारण करने वाले भिक्षुविशेष की तरह जिसने वस्त्रों के जोड़े हुए टुकड़े ओढ़ रखे थे वह दण्डिखण्डवसन कहलाता है। ___२५-खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत-खण्डमल्लक-भिक्षापात्र या फूटे हुए प्याले का नाम है। भिक्षु के जलपात्र या फूटे हुए घड़े को खण्डघटक कहा जाता है। जिस पुरुष के हाथ में खण्डमल्लक और खण्डघटक हो उसे खण्डमल्लकखण्डघटकहस्तगत कहते हैं। कहीं-रेखण्डमल्लखण्डहत्थगयं-ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। इस का अर्थ है-जिस ने खाने और पानी पीने के लिए अपने हाथ में दो कपाल-मिट्टी के बर्तन के टुकड़े ले रखे थे। २६-देहबिलका-का अर्थ कोष में भिक्षावृत्ति-भीख द्वारा आजीविका ऐसा लिखा है। किन्तु वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि जी इस का अर्थ "-देहि बलिं इत्यस्याभिधानं प्राकृतशैल्या देहंबलिया तीए देहंबलियाए-" इस प्रकार करते हैं। इस का सारांश यह है कि मुझे बलि दो-भोजन दो, ऐसा कह कर जो "-वित्तिं कप्पेमाणं-" आजीविका को चला रहा है, उस को-यह अर्थ निष्पन्न होता है, और बलि शब्द का प्रयोग-देवविशेष के निमित्त उत्सर्ग किया हुआ कोई खाद्य पदार्थ, और उच्छिष्ट-इत्यादि अर्थों में होता है। प्रकृत में तो बलि शब्द से खाद्य पदार्थ ही अभिप्रेत है। फिर भले ही वह देव के लिए उत्सर्ग किया 1. दण्डिखण्डानि-स्यूतजीर्णपटनिर्मितानि वसनानि एव वसनानि वस्त्राणि, यस्य स दण्डिखण्डवसनः, तमिति भावः। 2. दण्डिखण्डवसनं-दण्डी कन्थाधारी भिक्षुविशेषः तद्वत् खण्डवसनयुक्तम् / 3: खण्डमल्लखण्डहस्तगतम्-अशनपानार्थं शरावखण्डद्वययुक्तहस्तम्। 562 ] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय / [प्रथम श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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