________________ हुआ हो अथवा उच्छिष्टरूप से रक्खा हुआ हो। - कहीं पर देहंबलियाए इस पाठ के स्थान पर-देहबलियाए-देहबलिकया-ऐसा * पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। देह-शरीर के निर्वाह के लिए बलिका-आहार का ग्रहण देहबलिका कहलाता है। कच्छूमान्, कुष्ठिक-इत्यादि पदों को प्रथमान्त रख कर उन का अर्थ किया गया है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में ये सब पद द्वितीयान्त तथा देहबलिका शब्द तृतीयान्त है। अतः अर्थसंकलन करते समय मूलार्थ की भान्ति द्वितीयान्त तथा तृतीयान्त की भावना कर लेनी चाहिए। '. "-गोतमे तहेव जेणेव-" यहां पठित तहेव-तथैव पद द्वितीय अध्याय में पढ़े गए "-छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति 2 त्ता बीयाए पोरिसीए झाणं झियाति-" से लेकर "-दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे-" इन पदों का परिचायक है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का वर्णन है, जब कि प्रस्तुत में पाटलिषण्ड नगर का। . "-पाडलि." तथा "पडिनि जेणेव समणे भगवं" इन बिन्दुयुक्त पाठों से क्रमशः "-पाडलिसंडाओ नगराओ पडिनिक्खमइ, जेणेव समणे भगवं महावीरेतेणेव उवागच्छइ २त्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए। ... और "बिलमिव पन्नगभूए अप्पाणेणं आहारं आहारेति" इन पदों की व्याख्या 'वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है.आत्मनाऽऽहारमाहारयति, किंभूतः सन्नित्याह-पन्नगभूतः, नागकल्पो भगवान् आहारस्य रसोपलम्भार्थमचर्वणात्, कथंभूतमाहारं ? बिलमिव असंस्पर्शनात् नागो हि बिलमसंस्पृशन्नात्मानं तत्र प्रवेशयति, एवं भगवानपि आहारमसंस्पृशन् सोपलम्भादनपेक्षः सन् आहारयतीति-"अर्थात् जिस तरह सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है और अपनी गर्दन को इधर-उधर का स्पर्श नहीं होने देता, तात्पर्य यह है कि रगड़ नहीं लगाता, किन्तु सीधा ही रखता है, ठीक उसी प्रकार भगवान् गौतम भी रसलोलुपी न होने से आहार को मुख में रख कर बिना चबाए ही अन्दर पेट में उतार लेते थे। सारांश यह है कि भगवान् गौतम भी बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति सीधे ही ग्रास को मुख में डाल कर बिना किसी प्रकार के चर्वण से उदरस्थ कर लेते थे। 1. भगवान गौतम पाटलिषण्ड नगर से निकलते हैं और जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर ऐर्यापथिक-गमनागमन सम्बन्धी पापकर्म का प्रतिक्रमण (पाप से निवृत्ति) करते हैं। प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / सप्तम अध्याय [563