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________________ पहनाने वाली मंडनधात्री, क्रीड़ा कराने वाली क्रीडापनधात्री और गोद में रखने वाली अंकधात्री, इन पांच धाय माताओं की देखरेख में वह बालक गिरिकन्दरागत लता तथा द्वितीया के चन्द्र की भान्ति बढ़ने लगा। इस प्रकार यथाविधि पालन और पोषण से वृद्धि को प्राप्त होता हुआ सुबाहुकुमार जब आठ वर्ष का हो गया तो माता-पिता ने शुभ मुहूर्त में एक सुयोग्य कलाचार्य के पास उस की शिक्षा का प्रबन्ध किया। कलाचार्य ने भी थोड़े ही समय में उसे पुरुष की 72 कलाओं में निपुण कर दिया और महाराज को समर्पित किया। अब सुबाहुकुमार सामान्य बालक न रह कर विद्या, विनय, रूप और यौवन सम्पन्न होकर एक आदर्श राजकुमार बन गया तथा मानवोचित भोगों के उपभोग करने के सर्वथा योग्य हो गया। तब माता पिता ने उस के लिए पाँच सौ भव्य प्रासाद और एक विशाल भवन तैयार कराया और पुष्पचूलाप्रमुख पांच सौ राजकुमारियों के साथ उस का विवाह कर दिया। प्रेमोपहार के रूप में सुवर्णकोटि आदि प्रत्येक वस्तु 500 की संख्या में दी। तदनुसार सुबाहुकुमार भी उन पांच सौ प्रासादों में उन राजकुमारियों के साथ यथारुचि मानवोचित विषयभोगों का उपभोग करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा। यह है सूत्रवर्णित कथासन्दर्भ का सार जिसे सूत्रानुसार अपने शब्दों में व्यक्त किया गया है। हस्तिशीर्ष नगर तथा उस के पुष्पकरंडक उद्यान का जो वर्णन सूत्र में दिया है, उस पर से भारत की प्राचीन वैभवशालीनता का भलीभान्ति अनुमान किया जा सकता है। आज तो यह स्थिति भारतीय जनता की कल्पना से भी परे की हो गई है, परन्तु आज की स्थिति को सौ दो सौ वर्ष पूर्व के इतिहास से मिला कर देखा जाए तथा इसी क्रम से अढ़ाई, तीन हजार वर्ष पूर्व की स्थिति का अन्दाज़ा लगाया जाए तो मालूम होगा कि यह बात अत्युक्तिपूर्ण नहीं किन्तु वास्तविक ही है। कुछ विचारकों का "-साधु-मुनिराजों को नारी के सौन्दर्य तथा इसी प्रकार अन्य वस्तुओं के सौन्दर्य वर्णन से क्या प्रयोजन है-" यह विचार कुछ गौरव नहीं रखता, क्योंकि वास्तविकता को प्रकट करना दोषावह नहीं होता, बल्कि उसे छिपाना दोषप्रद हो सकता है। हां, वस्तु पर रागद्वेष करना दोष है, न कि उस का यथार्थरूप में वर्णन करना / आज के साधु की तो बात ही जाने दीजिए, परमपूज्य गणधर देवों ने भी ऐसे वर्णन किए हैं। उन्होंने सब बातों का, फिर वे बातें चाहे नगरसौन्दर्य से सम्बन्ध रखती हों, स्त्री अथवा पुरुष के सौन्दर्यविषय की हों, पूरी तरह से वर्णन किया है। 1. 72 कलाओं का विस्तृत वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध के द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है। 2. सुवर्णकोटि आदि का विस्तृत वर्णन प्रथम श्रुतस्कंध के नवम अध्याय में किया गया है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां कुमार सिंहसेन का वर्णन है जब कि प्रस्तुत में सुबाहुकुमार का। 798 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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