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________________ हैं। अतएव ये अचित्त होते हैं। यही इनकी विशेषता है। चेलोत्क्षेप-चेल नाम वस्त्र का है, उस का उत्क्षेप-फैंकना चेलोत्क्षेप कहलाता है। आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की अहोदान संज्ञा है। सुवर्णवृष्टि, पुष्पवर्षण और चेलोत्क्षेप एवं दुन्दुभिनाद, ये सब ही आश्चर्योत्पादक हैं। इसलिए जिस दान के प्रभाव से ये प्रकट हुए हैं उसे अहोदान शब्द से व्यक्त करना नितरां समीचीन है। -सिंघाडग. जाव पहेसु-यहां पठित-जाव-यावत्-पद से-तियचउक्कचच्चरमहापह-इन पदों का ग्रहण होता है। त्रिकोण मार्ग की श्रृंगाटक संज्ञा है। जहां तीन रास्ते मिलते हों उसे त्रिक कहते हैं। चार रास्तों के सम्मिलित स्थान की चतुष्क-चौक संज्ञा है। जहां चार से भी अधिक रास्ते हों वह चत्वर कहलाता है। जहां बहुत से मनुष्यों का यातायात हो वह महापथ और सामान्यमार्ग की पथ संज्ञा होती है। __-एवं आइक्खइ ४-इस पाठ में उपन्यस्त 4 का अंक-एवं आइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-इन चार पदों के बोध कराने के लिए दिया गया है। इस पर वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि कहते हैं कि प्रथम के-एवं आइक्खइ-(इस प्रकार कथन करते हैं), एवं भासइ (इस प्रकार भाषण करते हैं-इन दोनों पदों के अनुक्रम से व्याख्यारूप हीएवं पण्णवेइ (इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं), एवं परूवेइ (इस प्रकार प्ररूपण करते हैं)ये दो पद प्रयुक्त किए गए हैं। अथवा इन चारों का भावार्थ "-आइक्खइ-" सामान्यरूप में कहते हैं। भासइ-विशेषरूप में कहते हैं। पण्णवेइ-प्रमाण और युक्ति के द्वारा बोध कराते हैं। परूवेइ-भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिपादन करते हैं, इस प्रकार समझना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सुमुख गृहपति के विषय में हस्तिनापुर की जनता इस प्रकार कहती है, इस प्रकार से बोलती है, इस प्रकार से बोध कराती है और विभिन्नरूप से निरूपण करती है। यदि कुछ गम्भीरता से विचार किया जाए तो "आख्याति, भाषते" इन दोनों के व्याख्यारूप में ही "प्रज्ञापयति और प्ररूपयति" ये दोनों पद प्रयुक्त हुए हैं या होने चाहिएं। वृत्तिकार का पहला कथनएतच्च पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थं पदद्वयमवगन्तव्यम्-कुछ अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। आख्यान और भाषण की प्रज्ञापन और प्ररूपण अर्थात् युक्तिपूर्वक बोधन और विभिन्न प्रकार से निरूपण-यही सुचारु व्याख्या हो सकती है। 1. एवं आइक्खइ त्ति सामान्येनाचष्टे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम्-एवं भासइ त्ति विशेषतः आचष्टे।एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ-एतच्च पदद्वयं पूर्वोक्तपदद्वयस्यैव क्रमेण व्याख्यानार्थं पदद्वयमवगन्तव्यम्। अथवा आख्यातीति तथैव, भाषते व्यक्तवचनैः, प्रज्ञापयातीति युक्तिभिर्बोधयति, प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति। (वृत्तिकारः) द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [899
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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