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________________ -धन्ने णं देवा० सुमुहे गाहावई जाव तं धन्ने ५-इस स्थान में उल्लिखित जावयावत् पद से तथा 5 के अंक से भगवतीसूत्रानुसारी-धन्ने णं देवाणुप्पिया! सुमुहे गाहावई, कयत्थे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! सुमुहे गाहावई, कया णं लोया देवाणुप्पिया ! सुमुहस्स गाहावइस्स, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! माणुस्सए जन्मजीवियफले सुमुहस्स गाहावइस्स, जस्स णं गिहिंसि तहारूवे साहू साहुरूवे पडिलाभिए समाणे इमाइंपंच दिव्वाइं पाउब्भूयाइं तंजहा-१-वसुहारा वुट्ठा, २-दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, ३-चेलुक्खेवे कए, ४आहयाओ देवदुन्दुहीओ,५-अन्तरा वि यणं आगासे अहोदाणमहोदाणं च घुटुं, तं धन्ने कयत्थे कयपुन्ने कयलक्खणे कया णं लोया सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले सुमुहस्स गाहावइस्स सुमुहस्स गाहावइस्स-इस पाठ की ओर संकेत कराया गया है। अर्थात् हे महानुभावो ! यह सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है-जिस का प्रयोजन सिद्ध हो गया है, कृतपुण्य-पुण्यशील है, कृतलक्षण है (जिस ने शरीरगत चिह्नों को सफल कर लिया है), इस ने दोनों लोक सफल कर लिए हैं, इसने अपने मनुष्य जन्म तथा जीवन को सफल कर लिया है-जन्म तथा जीवन का फल भलीभांति प्राप्त कर लिया है। जिस के घर में सौम्य आकार वाले तथारूप साधु (शास्त्रों में वर्णित हुए आचार का पालक मुनि के प्रतिलाभित होने पर अर्थात् मुनि को दान देने से-१-सोने की वर्षा, २-पांच वर्ण के पुष्पों की वर्षा, ३-वस्त्रों की वर्षा, ४-देवदुन्दुभियों का बजना, ५-आकाश में अहो (आश्चर्यकारक) दान, अहोदान-इस प्रकार की उद्घोषणा, ये पांच दिव्य प्रकट हुए हैं, इसलिए सुमुख गाथापति धन्य है, कृतार्थ है, कृतपुण्य है, कृतलक्षण है, इस ने दोनों लोक सफल कर लिए हैं, इस ने मनुष्य का जन्म तथा जीवन सफल कर लिया है। प्रस्तुत में प्रथम धन्य आदि पद देकर पुनः जो धन्य आदि पद पठित हुए हैं वे वीप्सा के संसूचक हैं। एक पाठ को एक से अधिक बार उच्चारण करने का नाम वीप्सा है। प्रस्तुत में वीप्सा के रूप में ही उक्त पाठ को दोबारा उच्चारण किया गया है। संभ्रम या आश्चर्य में वीप्सा दोषावह नहीं होती। 1. शाकटायन व्याकरण में लिखा है कि सम्भ्रम अर्थ में पदों का अनेक बार प्रयोग हो जाता है। जैसे कि-५५९-संभ्रमेऽसकृत्। २-३-१।संभ्रमे वर्तमानं पदं वाक्यं वा असकृदनेकवारं प्रयुज्यते। जय जय जय। जिन जिन जिन।अहिरहिरहिः। सर सर सर। हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति हस्त्यागच्छति। लघु पलायध्वं लघु पलायध्वं लघु पलायध्वमित्यादि।इस के अतिरिक्त सिद्धान्त कौमुदी में लिखा है-"संभ्रमेण प्रवृत्तो यथेष्टमनेकधा प्रयोगो न्यायसिद्धः" (वा० 5056) सर्प सर्प सर्प। बुध्यस्व बुध्यस्व बुध्यस्व। इत्यादि पद दिए हैं जो कि वीप्सा के संसूचक हैं। प्रस्तुत में नगरनिवासी सुमुख गाथापति की जो पुनः पुनः प्रशंसा कर रहे हैं तथा इस में पदों का / अनेक बार जो प्रयोग हुआ है, वह भी वीप्सा के निमित्त ही है। 900 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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