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________________ हैं। जिस का समग्र जीवन एक मात्र आत्मतत्त्व के प्रकाश के लिए सर्वथा बन्धन से मुक्त होने के लिए गतिशील रहता है। संसार का भोग चाहे चक्रवर्ती पद का हो अथवा इन्द्र पद का, परन्तु जो एकान्त निस्पृह एवं अनासक्त भाव से रहता है। संसार का कोई भी प्रलोभन जिसे वीतराग भाव की साधना के पवित्र मार्ग से एक क्षण के लिए भी नहीं भटका सकता, ऐसा मानव उत्तम कहलाता है। यह उत्तम पद उत्तम मुनि और उत्तम श्रावक में पाया जाता है। ___(3) मध्यम-जो लोक की अपेक्षा परलोक के सुखों की अधिक चिन्ता करता है। परलोक को सुधारने के लिए यदि इस लोक में कुछ-कष्ट उठाना पड़े, सुख सुविधा भी छोड़नी पड़े, तो इसके लिए जो सहर्ष तैयार रहता है। जो परलोक के सुख की आसक्ति से इस लोक के सुख की आसक्ति का त्याग कर सकता है। परन्तु वीतरागभाव की साधना में परलोक की सुखासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। संसार की वर्तमान मोहमाया जिसे भविष्य के प्रति लापरवाह नहीं बना सकती। जो सुन्दर वर्तमान और सुन्दर भविष्य के चुनाव में सुन्दर भविष्य को चुनने का ही अधिक प्रयत्न करता है परन्तु जिस का वह सुन्दर भविष्य सुखासक्ति रूप होता है, अनासक्तिरूप नहीं, ऐसा मानव मध्यम कहा जाता है। (4) विमध्यम-जो लोक और परलोक दोनों को सुधारने का प्रयत्न करता है। लोक और परलोक के दोनों घोड़ों पर सवारी करना चाह रहा है, परन्तु परलोक के सुखों के लिए यदि इस लोक के सुख छोड़ने पड़ें तो उसके लिए जो तैयार नहीं होता / जो सुन्दर भविष्य : के लिए सुन्दर वर्तमान को निछावर नहीं कर सकता। जो दोनों ओर एक जैसा मोह रखता है। जिस का सिद्धान्त है-माल भी रखना, वैकुण्ठ भी जाना। ऐसा मानव विमध्यम कहलाता है। (5) अधम-जो परस्त्रीगमन, चोरी आदि अत्यन्त नीच आचरण तो नहीं करता परन्तु विषयासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। जो अपनी सारी शक्ति लगा कर इस लोक के ही सुन्दर सुखोपभोगों को प्राप्त करता है और उन्हें पाकर अपने को भाग्यशाली समझता है। ऐसा जीवन धर्म को लक्ष्य में रख कर प्रगति नहीं करता प्रत्युत मात्र लोकलज्जा के कारण ही अत्यन्त नीच दुराचरणों से बचा रहता है, तथा जिस की भोगासक्ति इतनी तीव्र होती है कि धर्माचरण के प्रति किसी भी प्रकार की श्रद्धाभक्ति जागृत नहीं होने पाती, ऐसा मानव अधम कहलाता है। (6) अधमाधम-मनुष्य वह है जो लोक परलोक दोनों को नष्ट करने वाले अत्यन्त नीच पापाचरण करता है। न उसे इस लोक की लज्जा तथा प्रतिष्ठा का ख्याल रहता है और न परलोक का ही। वह पहले सिरे का नास्तिक होता है। धर्म और अधर्म के 510 ] श्री विपाक सूत्रम् / षष्ठ अध्याय / [प्रथम.श्रुतस्कंध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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