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________________ को भक्तपान न देना, और चतुष्पदभक्तपानव्यवच्छेद-पशुओं को आहार-पानी न देना, . अथवा-अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद इन भेदों से दो प्रकार का होता है। किसी प्रयोजन को लेकर आहार-पानी न देना अर्थभक्तपानव्यवच्छेद और बिना कारण ही आहार- पानी न देना अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद कहलाता है। अनर्थभक्तपानव्यवच्छेद श्रावक के लिए त्याज्य होता है, तथा अर्थभक्तपानव्यवच्छेद के सापेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-रोगादि के कारण से आहार-पानी न देना तथा निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद-निर्दयतापूर्वक आहार-पानी का न देना, ऐसे दो भेद होते हैं। श्रावक के लिए निरपेक्षभक्तपानव्यवच्छेद का निषेध किया गया कुछ विचारकों का "-अहिंसा कायरता है-" यह कहना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है और उन के अहिंसासम्बन्धी अबोध का परिचायक है। अहिंसा का गम्भीर ऊहापोह करने से उस में कोई तथ्य प्रतीत नहीं होता। देखिए-कायरता का प्रतिपक्षी वीरता है। वीरता का अर्थ यदि-. . अस्त्रशस्त्रहीन एवं दीन दुःखियों के जीवन को लूट लेना, जो मन में आए सो कर डालना या निरंकुश बन जाना, इतना ही है, तो दिन भर झूठ बोलने वाला, दूसरों की धनादि सम्पत्ति चुराने वाला, सतियों के सतीत्व को लूटने वाला, दुनिया भर की जघन्य प्रवृत्तियों से धन कमा कर अपनी तिजोरियां भरने वाला, क्या वीर नहीं कहलाएगा? और क्या ऐसे वीरों से सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन सुरक्षित रह सकेगा ? उत्तर स्पष्ट है, कभी नहीं। क्योंकि जिस समाज या राष्ट्र में ऐसे नराधम व्यक्ति उत्पन्न हो जाएंगे, वह समाज या राष्ट्र अपने अन्तःस्वास्थ्य तथा बाह्यस्वास्थ्य से हाथ धो बैठेगा। जैसे स्वास्थ्यनाश का अन्तिम कटु परिणाम मृत्यु होता है, वैसे ही समाज और राष्ट्र के स्वास्थ्यनाश का अन्तिम परिणाम उसका सर्वतोमुखी पतन होगा। अतः वीरता किसी के जीवनापहरण में नहीं होती, प्रत्युत अपना कर्त्तव्य निभाने में, दीन, दुःखियों के जीवन के संरक्षण एवं पोषण में तथा प्रत्येक दुःखमूलक प्रवृत्ति से सुरक्षित रहने में होती है। जो मानस वीरता के पावन सौरभ से सुरभित होता है वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस में न्याय-अन्याय की जांच करता है। अन्याय से उसे घृणा होती है, जब कि न्याय को वह अपना आराध्यदेव समझता है, जिस के मान को सुरक्षित रखने के लिए यदि उसे अपने जीवन का बलिदान करना पड़े तो भी वह उस से विमुख नहीं होता। ऐसी ही वीरता का मूलस्रोत भगवती अहिंसा है। इतिहास बताता है कि अहिंसा के वीरों ने हर समय न्याय की रक्षा की है। न्याय की रक्षा के लिए शत्रुओं का दमन करना उन्होंने अपना कर्त्तव्य समझा था। राम रावण के साथ न्याय को जीवित रखने के लिए ही लड़े थे। रावण ने सती सीता को चुराकर एक अन्यायपूर्ण 822 ] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [द्वितीय श्रुतस्कन्ध
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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