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________________ गुणों पर विरोधी एवं दुर्गतिमूलक संस्कारों का बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है और उस की उत्क्रान्ति में अधिक से अधिक बाधा पड़ती है। आत्मा शुद्ध विकसित और हल्का होने के बदले अधिक अशुद्ध और भारी होता चला जाता है, तथा उत्थान के बदले पतन की ओर ही अधिक प्रस्थान करने लगता है, और अन्त में वह अकाममृत्यु को उपलब्ध करता है। जो जीव अज्ञान के वशीभूत हो कर मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उन की मृत्यु को अकाममृत्यु-बालमरण तथा जो जीव ज्ञानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं उन की यह ज्ञान गर्भित मृत्यु सकाममृत्युपण्डितमरण कहलाती है। मांस और मदिरा का सेवन करने वाले अकाममृत्यु को प्राप्त किया करते हैं जब कि अहिंसा सत्यादि सदनुष्ठानों के सौरभ से अपने को सुरभित करने वाले पुण्यात्मा जितेन्द्रिय साधु पुरुष सकाममृत्यु को। इस के अतिरिक्त बालमृत्यु दुर्गतियों के प्राप्त कराने का कारण बनती है, तथा सकाममृत्यु से सद्गतियों की प्राप्ति होती है, इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि मांस और मदिरा का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि जो पुरुष अपने लिए आत्यन्तिक शान्ति का लाभ करना चाहता है, उसको जगत में किसी भी प्राणी का मांस किसी भी निमित्त से नहीं खाना चाहिए। सम्पूर्ण रूप से अभयपद की प्राप्ति को मुक्ति कहते हैं। इस अभयपद की प्राप्ति उसी को होती है जो दूसरों को अभय देता है। परन्तु जो अपने उदरपोषण अथवा जिह्वास्वाद के लिए कठोर हृदयं बन कर मृगादि जीवों की हिंसा करता है, या कराता है, प्राणियों को भय देने वाला तथा उन का अनिष्ट एवं हनन करने वाला है, वह मनुष्य अभय पद को कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् कभी नहीं। भगवद्गीता ने साधना में लगे हुए साधकों के लिएसर्वभूतहिते रताः-और भक्त के लिए "-अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च-" ऐसा कह कर सर्व प्राणियों का हित और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री और दया करने का विधान किया है। प्राणियों के हित और दया के बिना परम-साध्य निर्वाण पद की प्राप्ति तीन काल में भी नहीं हो सकती। अतः आत्मकल्याण के अभिलाषी मानव को किसी समय किसी प्रकार किञ्चित मात्र भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए। धर्म में सब से पहला स्थान भगवती अहिंसा को दिया गया है, शेष सदनुष्ठान उस के अंग हैं, परन्तु अहिंसा परम धर्म है। धर्म को मानने वाले सभी लोगों ने अहिंसा की बड़ी महिमा गाई है। वास्तव में देखा जाए तो बात यह है कि जो धर्म मनुष्य की वृत्तियों को त्याग, निवृत्ति 1. य इच्छेत् पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्। सवर्जयेत् मांसानि, प्राणिनामिह सर्वशः॥ (महाभारत अनु० 115/55) प्रथम श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / अष्टम अध्याय [635
SR No.004496
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Shivmuni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2004
Total Pages1034
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size21 MB
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