________________ पुरुषों का प्रवचन होता है। एक अपने अन्दर उग्रशक्ति रखता है, जबकि दूसरा केवल शोभा मात्र है। सुबाहुकुमार पूर्वभव में किसी विशिष्ट व्यक्ति के प्रवचन में मार्मिक बोध को प्राप्त करके तदनुसार आचरण करता हुआ पुनीत होता है। इस का निश्चय उस के ऐहिक मानवीय वैभव से प्राप्त होता है। विशिष्ट बोधसम्पन्न व्यक्ति की दृष्टि में आत्मा की उत्पत्ति या विनाश नहीं होता है। अर्थात् "किसी समय में उस की उत्पत्ति हुई होगी और किसी समय उस का विनाश होगा" इस साधारणजनसम्मत अतात्त्विक कल्पना को उन के हृदय में कोई स्थान नहीं होता। वे जानते हैं कि कोई पुरुष पुराने वस्त्र को त्याग नवीन वस्त्र धारण करने पर नया नहीं हो जाता, उसी प्रकार नवीन शरीर ग्रहण कर लेने पर आत्मा भी नहीं बदलता। आत्मा की सत्ता त्रैकालिक है। वह आदि, अन्त हीन और काल की परिधि से बाहर है। शरीर उत्पन्न होते हैं और विनष्ट भी हो जाते हैं, परन्तु शरीरी-आत्मा अविनाशी है। वह नानाविध आभूषणों में व्याप्त सुवर्ण की भांति ध्रुवं है। इस अबाधित सत्य को ध्यान में रखते हुए सुबाहुकुमार के पूर्वभव की पृच्छा की गई है। तथा "किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा"-इत्यादि अनेकविध प्रश्नों का तात्पर्य यह है कि ये सभी पुण्योपार्जन के साधन हैं। इन में से किसी का भी सम्यग् अनुष्ठान पुण्यप्रकृति के बन्ध का हेतु हो सकता है, परन्तु सुबाहुकुमार ने इनमें से किस का आराधन किया था, यही प्रस्तुत में प्रष्टव्य है। .. प्रस्तुत सूत्र में सुबाहुकुमार को देख कर गौतम स्वामी के विस्मित होने तथा उसे प्राप्त हुई मानवीय ऋद्धि का मूल कारण पूछते हुए उस के पूर्वभव की जिज्ञासा करने आदि का वर्णन किया है। इस के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फरमाया अब सूत्रकार उस का प्रतिपादन करते - मूल-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे णामं णगरे होत्था, रिद्धः। तत्थ णं हत्थिणाउरे णगरे सुमुहे णामं गाहावई परिवसइ अड्ढे / तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा जाइसंपन्ना जाव पंचहिं समणसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुट्विं चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव हत्थिणाउरेणगरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता अहापंडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अन्तेवासी सुदत्ते अणगारे मासखमणपारणगंसि द्वितीय श्रुतस्कंध] श्री विपाक सूत्रम् / प्रथम अध्याय [873